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जैन हितैषी
बद्ध कर लिया है। हम लोग आपको दे क्या सकते हैं । पर हम जन्मभर आपका उपकार मानते रहेंगे । " हरिनाथ बाबू नोट लेकर कुछ देर चुप रहे। मैंने देखा, उनके नेत्रों में आँसू भर आये थे । मैं सोचने लगा ' आज इस नृशंसमें कोमलता कैसी ?' इतने में हरिनाथबाबूने कहा:---
“ विनोदबाबू मैंने उपकार नहीं किया है। मैं उपकार करता भी नहीं हूँ | मैंने जो कुछ किया सब इन नोटोंके लिए। आपको आश्चर्य होता होगा । इतनी सम्पत्ति रहने पर भी मैं धनसंचय कर रहा हूँ। मेरी न तो कोई संतान है, न कोई बन्धु बान्धव ही है । मैं अकेला हूँ। मैं जानता हूँ यह मेरी वृद्धावस्था है | मैं जानता हूँ, मेरा मृत्युकाल सन्निकट है । धनसे मुझे कुछ लाभ नहीं है । तो भी में धनसंचय करूँगा, मृत्यु-काल तक संचय करता रहूँगा । "
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यह कहते कहते हरिनाथ बाबू खड़े हो गये उनका शरीर काँपने लगा। उनकी यह दशा देख मैं डर गया | उन्हें शान्त करने के लिए मैं कुछ कहना ही चाहता था कि हरिनाथ बाबू फिर कहने लगे, " विनोदबाबू गुझे शान्ति नहीं चाहिए हृदयकी इस विषमज्वालाको लेकर मैं हो मरूँगा आज ३५ वर्षसे मैं यह ज्वाला हृदयमें रख रहा हूँ । बाबू मैं जानता हूँ आप लोग मुझे कैसा समझते हैं, पर मैंने जैसा कुछ अनुभव किया उसे मैं ही जानता हूँ । विनोद बाबू, आज तुम्हारी बातोंसे मुझे उस घटनाका स्मरण हो आया है जिसे इस धन-तृष्णाकी प्रबलज्वालामें पड़कर मैं भूल जाना चाहता था । मैं तुमसे अपनी जीवन कथा कह देता हूँ । विनोद बाबू, तब तुम जान सकोगे मैं ऐसा नर-पिशाच क्यों हो गया।
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'आज ४५ वर्ष हो गये मैं बी. एस. सी. पास कर घर लौटा था । मेरा घर हरिपुर में था । घरमें विधवा माता और वर्षभरकी बहिन थी । पिता की मृत्यु बहिन के जन्म होते ही हो गई थी, इस लिए मैंने अपनी बहिनका नाम अभागिनी रक्खा था । पिताकी मृत्यु हो जानेपर हम लोग वर्षभर बड़ी तकलीफमें रहें । माता के अनुरोधसे मुझे कालेज जाना पड़ा और दासीकी वृत्ति स्वीकार कर माता गाँव में रही। दो चार लड़कोंको पढ़ा कर मैं अपना खर्च निकाल लेता था । घर के लिए भी जो कुछ बचा करता भेज देता । इस प्रकार एक वर्ष व्यतीत कर मैं घर लौटा । उस समय माताकी दशा देखकर मुझे बड़ी वेदना हुई । गाँव में कई लोग ऐसे थे जो यदि च तो हमें सहायता दे सकते थे । पर किसीने कुछ हुई थी। मैं भी भविष्य सुखका स्वप्न देखने लगा नहीं किया । मेरे आनेपर माताको बड़ी प्रसन्नता था । इतनेमें मेरी माताको बुखार आने लगा । वर्षा काल आ गया था। घर खूब टूट फूट गया था । एक कमरेको छोड़ दूसरा कमरा भी नहीं था । वह भी ऐसा नहीं था कि उसमें मेरी ज्वरसे पीडित माता रह सके । मैंने पड़ोस के लोगोंसे एक कमरा देनेके लिए बड़ी प्रार्थना की । पर किसीने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी। उन्हें विश्वास हो गया था कि मेरी माताको प्लेग हो गया है । एक दिन माताकी पीड़ा खूब बढ़ गई । मैंने पासके गाँवसे एक डाक्टर बुलाने का विचार किया । पर कोई भी जाने के लिए उद्यत नहीं हुआ । मैं स्वयं जानेके लिए प्रस्तुत हुआ, पर माता और अभागिनीको किसके आश्रय में छोडूं ? मैंने एकसे कहा, ' भाई घरमें स्थान भलेही मत दो; पर हमारे घर जाकर मेरी माता के पास दो घंटेके लिए बैठे रहो। मैं तब तक डाक्टरको बुला लेता हूँ ।' पर वह प्लेग के भय से नहीं
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