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जैनहितैषी -
कदाचित् कोई मेरे आशय के समझने में भूल करे, इस विचारसे मैं आरम्भमें ही यह कह देना उचित समझता हूँ कि यह मैं जानता हूँ और मानता भी हूँ कि काशीके स्याद्वाद महाविद्यालय के स्थापित होनेके पहिले जैनसमाजमें जैनधर्म के अमूल्य शास्त्र - रत्नोंका अर्थ समझने और समझा सकनेवाले मनुष्यों की बहुत ही कमी थी और इस संस्थाने इस कमीको यत्किंचित् दूर भी किया है, पर समाजको इससे अन्य भी कोई लाभ हुआ है यह अवश्य ही विवादग्रस्त बात है । किन्तु यदि यह संस्था अपना यही कार्य उचित रीतिसे करती रहे तो भी हमें बहुत हर्ष होगा । परन्तु अब इस कार्य में भी बहुत कुछ गड़बड़ी हो रही है।
शायद समाजको यह ज्ञात होगा कि यहाँके विद्यार्थियों में हड़ताल कर देनेका, पढ़ना बन्द कर देनेका, एक अपूर्व गुण है । इस गुणका प्रकाश समाजने बहुधा देखा होगा । यदि न देखा हो तो उसमें न विद्यार्थियों का दोष है और न उनके गुणका | दोष है केवल संचालकोंका कि जिन्होंने उनके इस गुणको छुपा रखनेका प्रयत्न किया है । किन्तु जिन लोगों को इस संस्थाके समाचार जाननेका थोड़ा बहुत शौक होगा उन्हें अवश्य ज्ञात हुआ होगा कि आज विद्यार्थियोंने अमुक अधिष्ठाताको निकलवा दिया, आज अमुक सुपरिंटेंडेंट साहबको अपना बदना बोरिया सम्हाल कर चले जाना पड़ा । यहाँ तक कि यदि मुझे ठीक ज्ञात हुआ है तो अब तक इस विद्यालय में प्राय: बीससे ऊपर सुपरिण्टेण्डेंट काम कर चुके हैं । और अधिष्ठाता ओंकी संख्या भी जितनी समाजको मालूम है उससे कहीं अधिक हो चुकी है ।
प्रश्न हो सकता है कि यह गुण विद्यार्थियोंमें क्यों कर पैदा हुआ ? संस्कृत पढ़नेवाले विद्यार्थी
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जिनकी गुरुके प्रति बहुत ही अधिक श्रद्धा प्रसिद्ध है, जो गुरुकी चरणसेवा करना ही अपना परम कर्त्तव्य सदासे मानते चले आये हैं उनमें यह अनादरका भाव, यह स्वच्छन्दता कहाँसे उत्पन्न हो गई ? इसका वास्तविक कारण क्या है यह मैं आगे चलकर बतलाऊँगा और वह आप लोगोंको स्वयं भी जरा विचार कर लेने पर ज्ञात हो जायगा । यहाँ पर यह बात अवश्य कहूँगा कि संचालकगण भी इसके उत्तरदायित्व - से मुक्त नहीं हो सकते। क्यों कि उन्होंने अवश्य ही विद्यार्थियोंकी इच्छानुसार कार्य करके, जिसको उन्होंने निकलवाना चाहा उसे निकाल करके, जिसको नियत करना चाहा उसे नियत करके और विद्यार्थियोंकी खुशामद करके, उन्हें उत्तेजित किया है । यह लिखते समय मैंने यह अवश्य ध्यानमें रक्खा है कि विद्यार्थियों का ऐसा व्यवहार कदापि उचित नहीं था । उन्होंने कभी ऐसी बातकी प्रार्थना नहीं की जो वास्तवमें आवश्यक थी, किन्तु द्वेषभाव से अथवा अन्य किसी कारणहीसे उन्होंने ऐसा किया था । यह जो महाशय चाहें मालूम कर सकते हैं ।
जब मैं विद्यालय में गया (शायद ४-५ अक्टू बरको ) तब देखा कि फिर वही रंग है । पाठ बंद है, सब अध्यापकों की रिपोर्ट है कि विद्यार्थियोंने पढ़नेसे इन्कार किया है। जब ऐसा दृश्य देखा तो स्वाभाविक था कि चित्तको कष्ट पहुँचता । किन्तु किससे क्या कहा जाता ? अधिष्ठातासे ? वे तो कभी यहाँ रहते ही नहीं । उपअधिष्ठातासे ? उनका भी बनारस में कोई पता नहीं । मंत्रीजीसे ? वे तो स्वयं छुट्टीका अवसर देख कर जौनपुरसे दो दिन के लिए यहाँ आये थे और खुद परेशान थे कि क्या किया किया। क्यों कि उन्होंने विद्यार्थियों से बहुत कुछ कहा सुना था किन्तु विद्यार्थीगण उनकी
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