Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 77
________________ स्याद्वाद महाविद्यालयकी भीतरी दशा । 1000 1000 10th tintent [ले० श्रीयुत प्रोफेसर निहालकरणजी सेठी एम् एस् सी., काशी। ] जैनहितैषी पाठकगण • सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारी' शीर्षक लेख सितम्बर अक्टूके अंक में पढ़ चुके हैं । उसके पढ़ने से उन्हें ज्ञात हो गया होगा कि जैनसमाजमें सार्वजनिक संस्थाओंके कार्यकर्ताओं को इस विषय के महत्त्वका कितना ज्ञान है और कितने संचालक अपनी इस बहुत बड़ी जिम्मेवारीको समझते हैं । कुछ साधारण रीति से उन्हें यह भी मालूम हो गया होगा कि ऐसी संस्थाओंके प्रबंधमें अवश्य कुछ गड़बड़ी है और अभी बहुत कुछ उन्नति करनेकी आवश्यकता भी हैं । किन्तु उन्हें अभी यह पता न हुआ होगा कि यह अंधेर यहाँतक बढ़ गया है कि समाज यदि वह अपना हित चाहता है और अपने गाढ़े पसीने की कमाईके द्रव्यका वास्तविक सदुपयोग करना अत्यन्त आवश्यक समझता है तो अब चुप नहीं बैठ सकता । अब ऐसा समय आगया है जब केवल यह सोचकर संतोष नहीं हो सकता कि अमुक संस्था तो अमुक सज्जनके हाथमें है उसमें गड़बड़ी नहीं हो सकती । संभव है कि बिना उन सज्जनके दोषके ही, उनकी अत्यधिक सज्जनताके कारण ही संस्थाकी दशा शोचनीय हो रही हो । इसके अतिरिक्त एक और बात ध्यान देने योग्य है । यह आवश्यक नहीं है कि कोई महाशय संस्थाका द्रव्य हड़प जायँ अथवा वह किसी ऊपरी टीम टामके कार्य में ही बहुतसा द्रव्य व्यय कर दें । इन बातोंके बिना भी समाजका धन व्यर्थ जा सकता है, इनके होते हुए भी संचालक - Jain Education International गण सार्वजनिक धनके दुरुपयोग के लिए दोषी हो सकते हैं । आज ऐसी ही एक कथा सुनानेको मैं बाध्य हुआ हूँ । आप बाध्य होने का कारण पूछ सकते हैं । आप कह सकते हैं कि ऐसी कथा सुनाने में क्या कष्ट था जो बिना बाध्य हुए सुना देने की आवश्यकता न समझी गई । इसका संक्षिप्त उत्तर केवल यही है कि संचालकों को इस बातका डर था कि कहीं इस कुप्रबंधकी कथा समाजको मालूम हो जायगी तो समाज शायद इसके लिए चन्दा आदि देने में संकोच करने लगे । वे थे कि प्रबंध उचित नहीं है, किन्तु उनका विश्वास था कि इस कुप्रबंधसे समाजकी इतनी हानि नहीं जितनी कि संस्थाके लिए द्रव्य न मिलने से होगी। इस कारण उनका प्रयत्न यह रहता था कि समाजके सम्मुख कोई इस रहस्यको प्रगट न करे । और मैं समझता हूँ कि यह विचार किसी अंशमें ठीक भी था । किन्तु सौभाग्य से या दुर्भाग्य से मुझे हालही में इस विद्यालयको स्वयं देखनेका अवसर मिला । बहुत दिन तक मैं इसकी दशाका यथार्थ स्वरूप जानने का प्रयत्न करता रहा और इसके संचालकोंसे प्रार्थना भी करता रहा कि इसकी दशा शोचनीय है, इसका उचित प्रबंध होना चाहिए । किन्तु जब देखा कि वे लोग इस दशाको कुछ बुरी दशा नहीं समझते और इसके सुधारकी ओर उनका लक्ष्य भी नहीं है, तब मुझे समाजको यह सब कथा सुनाने के लिए प्रस्तुत होना पड़ा । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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