Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 79
________________ HIMALAAMRATAUTATIBHAIBIMALAIMOTIAMERAHMADI स्याद्वादमहाविद्यालयकी भीतरी दशा। ५९७ बात तो क्या सुनते उनका अनादर करनेको (यद्यपि सब सभासदोंके समक्ष नहीं ) स्वीकार उद्यत थे । क्या सभापतिसे कुछ कहता? उनके किया कि उन्हींने विद्यार्थियोंसे ऐसा करनेको विषयमें तो सना कि वे कभी पत्रका उत्तर भी कहा था और उसका कारण उन्होंने यह बत देना उचित नहीं समझते । सुपरिंटेंडेंटसे ? लाया कि जबसे ये मंत्री महाशय नियत हुए हैं वाह, उनहीके विरुद्ध तो सारा प्रयत्न था, उनकी विद्यालयकी दशा बहुत खराब हो गई है और कौन सुन सकता था। जब अधिष्ठाता यहाँ नहीं जबतक इस प्रकार पाठ बंद न किया जायगा तब रहते, उपाधिष्ठाता यहाँ नहीं रहते, मंत्रीजी भी तक इसके कार्यकर्ता इस ओर ध्यान न देंगे । परदेशी हैं, सभापतिको पत्रका उत्तर देनेका भी पर उन्होंने प्रबन्धकारिणी सभाकी बैठकमें अवकाश नहीं होता तब आप समझ सकते हैं, कहा कि यह बात मिथ्या है और मुझपर विकि इस सबमें आश्चर्यकी बात ही क्या थी। द्यालयको हानि पहुँचानेकी नीयतसे यह झूठा खैर, मंत्री महाशयने जिस तिस प्रकार प्रबंध- दोष लगाया गया है । यह देख मुझे गवाह कारिणी सभाके स्थानीय सभासदोंको एकत्रित पेश करना पड़े और उन्हें चुप हो जाना पड़ा। किया और उनसे प्रार्थना की कि ऐसी दशा है,इसका मैं यहाँपर यह विवेचना नहीं करना चाहता कि उचित प्रबंध हो जाना चाहिए। किन्तु भला मंत्री महाशयने विद्यालयको लाभ पहुँचाया या ऐसे कार्यका उत्तरदायित्व अपने सिर कौन ले ? हानि, किन्तु मैं समाजका ध्यान केवल इस बातकी यह निश्चय हुआ कि इसके कारणोंकी जाँच की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ कि इस बातमें जाय और सभापति महाशय श्रीमान् सेठ हुक- उस वास्तविक कारणका पता लगता है कि मचंदजीसे तार द्वारा अनुमति ली जाय । कुछ जिसके कारण विद्यार्थी इतने उद्धत और सभासदोंने जाकर पूछताछ की तो ज्ञात हुआ स्वच्छन्द हो गये हैं। कि मुख्य कारण यह है कि धर्माध्यापक महा- स्थानीय सभासदोंको इतना ज्ञात हो जाने शयकी मंत्रीजी और सुपरिटेंडेंट महाशयसे पर भी वे कुछ कर नहीं सकते थे। करते भी नहीं बनती । वे चाहते हैं कि उक्त दोनों महा- कैसे ? उनको कोई अधिकार ही नहीं था। शय पृथक हो जायँ । यह बात सभा पहिलेसे सभापति होता, अधिष्ठाता होता, उपाधिष्ठाता जानती थी और मंत्रीजीका बहुत कुछ अपमान होता तो शायद कुछ करता भी । २८ अक्टूकरनेके कारण धर्माध्यापक पं० उमरावसिंहजीको बरको सभा करना निश्चय हुआ और सभा पहले ही एक मासके लिए पृथक् कर चुकी बाहरके सभासदोंके पास सूचना भेजी गई । थी। अब ज्ञात हुआ कि उक्त पंडितजीने ही उस दिन सभा हुई और बाहरसे तीन सज्जन विद्यार्थियोंको बहकाकर पाठ बंद करवा दिया आये भी । सौभाग्यसे अधिष्ठाता महाशय भी है । विद्यार्थियोंसे पूछने पर उनका उत्तर केवल पधारे । सब वृत्तान्त सुनाया गया; किन्तु सबको यही था कि सुपरिन्टेन्डेन्ट महाशय-जो साहित्यके यह विश्वास हो जाने पर भी कि धर्माध्यापक अध्यापक भी हैं-साहित्य ठीक नहीं पढ़ा सकते, महाशयका यह कार्य विद्यालयको बहुत हानि अतः जब तक उनके स्थान पर कोई अन्य महा- पहुँचानेवाला हुआ है और उनको इसके लिए शय नियत न किये जायेंगे वे पढ़ना उचित दंड भी मिलना चाहिए, यह उचित नहीं समझा नहीं समझते। किन्तु पंडित उमरावसिंहजीने गया कि उनसे कुछ कहा जाय । क्योंकि अन्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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