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होता है कि जिस देशको, इस समय एकताकी सबसे अधिक आवश्यकता है उस देश के हितकी हत्या करके ही आपके दोनों सम्प्रदाय अपने अपने व्यवहार-धर्म की रक्षा करना चाहते हैं ? और आपके इस वर्ताव से क्या प्रचालित नीति या सदाचारका भङ्ग नहीं होता है ? आपमें से बहुतों को सच्चे झूठे प्रमाण खड़े करने पड़ते होंगे, दूसरे अनेक अन्याय करने पड़ते होंगे, धर्मके नामसे झगड़ेका काम करने के लिए चन्दा करनेका पाप कमाना पड़ता होगा, एक दूसरेके अमंगलकी भावना करनी पड़ती होगी और उससे जैनधर्म की नीवतुल्य चार भावनाओंकी हत्या होती होगी; ये सब बातें क्या नीति, धर्म, समाज, नेशन आदि के लिए बाधक नहीं हैं ?
लड़ना धर्म है या क्षमाभाव रखना ?
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जिस समय यूरोपका महायुद्ध शुरू हुआ था उस समय, मुझे स्मरण है कि आपमें से बहुतोंने सभायें करके भगवानसे इस प्रकारकी प्रार्थनायें की थीं कि यह युद्ध बन्द हो जाय और पुनः शान्तिका प्रसार हो | जिसके संचालक सूत्रों तक किसी तरह हमारा हाथ ही नहीं पहुँच सकता है उस दूरके युद्ध की शान्तिकी इच्छा करने के लिए तो आप एकत्र हुए; परन्तु मुझे नहीं मालूम है कि आप लोगोंने अपने इस घरू युद्धकी आग बुझाने के लिए एक दिन भी एकत्रित होकर प्रार्थना की हो, या आपस में मिलकर सलाह ही की हो । मालूम नहीं आपका यह कैसा व्यवहार है और आपके धर्मकी व्याख्या है । या तो यह स्वीकार कीजिए कि युद्ध अच्छा कार्य है, इससे शक्तियोंका विकास होता है और युद्ध करनेके लिए जिस बलकी आवश्यकता है उसका सम्पादन कीजिए, या युद्ध बुरा है, पाप . है, यह मानकर उससे दूर रहिए । यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, दूसरोंके युद्धको पाप मान • कर अपने युद्धको पुण्य समझते हैं तो आपकी
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इस मानताको 'मनमानी घरजानी ' के सिवाय और क्या कह सकते हैं ?
बाल्यविवाहादिसे हमारा बल घट गया है, यह बात रोज ही गला फाड़ फाड़ कर कही जाती है; परन्तु जब तक कन्याव्यवहारका क्षेत्र विस्तृत न होगा तब तक बाल्यविवाह, बे-मेल- विवाह, कन्याविक्रय आदि अधर्म कदापि दूर नहीं हो सकते । कन्याव्यवहारका क्षेत्र बढ़ाने में जातियों के सैकड़ों भेद उपभेद सबसे बड़े बाधक हैं । जबतक समग्र जैनसमाज अपने अपने क्रियाकाण्डों को - आचार विचारोंको पालते रहने पर भी दूसरोंके क्रियाकाण्डों तथा आचार विचारोंके प्रति सहिष्णुता रखनेवाला न बनेगा और परस्पर प्रेमभाव, ऐक्य, कन्याव्यवहार और कोआपरेशन न बढ़ायगा, तब तक सामाजिक कुरीतियाँ, निर्बलता और अज्ञानता आदि दोष कदापि दूर न हो सकेंगे । जब तक मूल बना हुआ है तब तक शाखा प्रशाखाओंके नाश होनेकी आशा रखना व्यर्थ है । समाजबलका सारा आधार एकता पर है और यह एकता दिगम्बर श्वेताम्बर के ' निश्चय ' धर्मको तो सर्वथा ही बाधक नहीं है, रहा 'व्यवहार' सो उसमें भी यदि पर- मतसहिष्णुता रखना सिखाया जाय, तो एकता बाधक नहीं हो सकती ।
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सम्पादक महाशय, ये सारी दलीलें, प्रश्न और सूचनायें केवल आपके प्रति या श्वेताम्बर समाजके प्रति ही नहीं हैं; किन्तु समग्र जैनसमाजके प्रति हैं । इन सबका तात्पर्य केवल इतना ही है कि इस समय पवित्र जैनधर्मकी कीर्तिके लिए, जैनसमाजके बल के लिए और भारत के हित के लिए जैनोंके तमाम झगड़े मिटाकर एकताका बल बढ़ानेकी ओर सबसे अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए । इस समय इस प्रार्थनाके
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