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SARALLULABULLETIMARATIBE पनि सभापतिका व्याख्यान।
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तथा व्यापारिक जैसे मुनीमी इत्यादिकी शिक्षा देनी “प्राकृत प्राचीन-प्रियता यह मानवी हृदयकी चाहिए । प्रश्न यह है कि जैनधर्म क्या केवल बनि- स्वाभाविक प्रवृत्ति है । मनुष्यका स्वभाव परिवर्तनके योंका-व्यापारी-मुनीमोंका-धर्म रहनेसे संतुष्ट होगा ? प्रतिकूल ही होता है, और इसके दो कारण हैं-- वह कौम कौम नहीं जिसमें सब प्रकारके व्यक्ति न एक तो अज्ञातका अविश्वास तथा काल्पनिक हों-व्यापारी, कलाकौशलके जाननेवाले, राज्यकर्ता, विवेचनकी अपेक्षा अनुभव पर अधिक अवलंबन कानूनके जाननेवाले, लेखक, कवि, डॉक्टर, न्याया- और दूसरा मनुष्यका वह स्वभाव जिसके कारण वह धीश, सैनिक, धर्मप्रचारक, कृषक, परिश्रम करनेवाले, अपनी परिस्थितिके अनुकूल अपनेको बना लेता इत्यादि । क्या पृथक् पाठशालायें खोलकर हम है जिससे अपरिचितकी अपेक्षा परिचित उसे अपनी इस बड़ी आवश्यकताको पूर्ण कर सकते अधिक स्वीकृत तथा सह्य होता है । ” यद्यपि यह हैं ? महाशयो, निःसन्देह इसके लिए हमें सरकारी सत्य है तो भी हमें स्मरण रखना चाहिए कि एक विद्यालयोंका सहारा लेना पड़ेगा-हमारे युवकोंको जीवित वस्तुके लिए--living organism के विदेशोंमें भेजना पड़ेगा । साथहीमें हमारे धर्मके लिए-परिवर्तन अपरित्याज्य है। “ प्रत्येक वस्तु प्रचारके लिए हमें अनेक व्यक्ति ऐसे तैयार करने सतत परिवर्तनहीसे विद्यमान रहती है, " यह एक होंगे जो हमारे धर्मके पूर्ण ज्ञाता हों तथा जिन्हें अन्य प्राचीन ग्रीकका कथन है । लॉर्ड रोज़बरीके इस धर्मोंका-समस्त विद्याओंका-पाश्चात्य साइंस,
2 कथनकी सत्यता हमें माननी ही होगी कि,
- दर्शन, न्याय, साहित्य तथा इतिहास आदिका-भी पर्याप्त ज्ञान हो। परन्तु मैं अपना यह मत पलटनेकी
“ The effigies and splendours of
*** tradition are not meant to cramp the आवश्यकता नहीं देखता कि इस प्रकारकी अनेक
energies or the development of a छोटी छोटी संस्थाओंकी अपेक्षा एक विशाल तथा
rigorous and various nation." क्या यह सुव्यवस्थित संस्था अधिक लाभदायक होगी। आप -
कहना सत्य नहीं है कि,"नियम व संस्थायें मनुष्यके क्षमा करें, मेरी सम्मतिमें काशी, मथुरा तथा मुरैनाके लिए हैं, न कि मनुष्य नियम व संस्थाओंके विद्यालय हमारी इस आवश्यकताको पूर्ण नहीं कर
लिए।"या तो परिवर्तनया अंत । यही प्रकृ. सकते, और इसके लिए यदि इन तीनों संस्थाओंको
तिका नियम है। मिलाकर एक विशाल संस्था बनाई जाय तो मैं समझता हूं कि अधिक लाभ होगा। * *
___" है बदलता रहता समय उसकी सभी घातें नई, प्रिय प्रतिनिधिगण, सामाजिक सुधार तथा
.. कल काममें आती नहीं हैं आजकी बातें कई ! शिक्षाप्रचारके कार्यके लिए जिस मार्गका अवलंबन
है सिद्धि-मूल यही कि जब जैसा प्रकृतिका रङ्ग होकरनेकी सम्मति मैंने प्रकट की है उसको धारण
तब ठीक वैसा ही हमारी कार्य-कृतिका ढङ्ग हो । करने के लिए आपको यह स्पष्ट जान पड़ता होगा
प्राचीन हों कि नवीन छोड़ो रूढ़ियां जो हों बुरी, कि सबसे पहले हमें अपनी कौमको इस बातके बनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी । लिए तैयार करना होगा कि वह परिवर्तन अथवा प्राचीन बातें ही भली हैं यह विचार अलीक है, change ग्रहण क नेको तत्पर हो । यह बात जैसी अवस्था हो जहाँ वैसी व्यवस्था ठीक है ॥" हमें मानना पड़ेगी कि हमारी जैन जाति अभी अतएव महाशयो, यदि जैनधर्म व जैन कौमको परिवर्तनके लिए, भारी परिवर्तनके लिए, तत्पर जीवित रहना है, यदि जैनधर्मको हम सब देशोंमें नहीं है। एक प्रसिद्ध अँगरेज लेखक का यह तथा सब प्रकारके लोगोंमें प्रसारित देखना चाहते कथन सर्वथा ठीक है कि
हैं, यदि हमें अपना अंत स्वीकृत नहीं है तो हमें
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