Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 15
________________ SHABARTIMLAIMLIMATIBIOTALED ___ भद्रबाहु-संहिता। Timfimum ५३३ करके बनाया गया है। सिर्फ 'असत्य' और बनाया गया है । इस परिवर्तनसे 'पुत्र अपने ही 'स्तैन्य ' ये दो व्यसन इसमें ज्यादह बढ़ाये समान हकदार है ' की जगह ' आत्मा निश्चयसे गये हैं, जिनकी वजहसे कामज व्यसनों या पुत्ररूप होकर उत्पन्न होता है' यह अर्थ हो गया है। गुणोंकी संख्या दसके स्थानमें बारह हो गई है। कृत्वा यज्ञोपवीतं तु पृष्ठतः कंठलम्बितम् । परंतु वैसे भद्रबाहुसंहितामें भी यह संख्या विण्सूत्रे तु गृही कुर्याद्वामकर्णे व्रतान्वितः ॥ १-१८॥ दस ही लिखी है, जिससे विरोध आता है। यह पद्य वही है जिसे विट्रल नारायण कृत संभव है कि ग्रंथकर्ताने 'तौर्यत्रिक' को एक । आह्निक ' में 'अंगिराः । ऋषिका वचन लिखा गुण या एक चीज समझा हो । परन्तु वास्तवमें है। सिर्फ 'समाहितः । के स्थानमें यहाँपर ऐसा नहीं है। गाना, बजाना और नाचना ये 'व्रतान्वितः' का परिवर्तन किया गया है। तीनों चीजें अलग अलग हैं और अलग अलग मनस्मतिके आठवें अध्यायमें, लोकव्यवहागण कहे जाते हैं, जैसा कि उक्त पदमें लगे रके लिए कुछ संज्ञाओंका वर्णन करते हुए, हुए ‘त्रिक ' शब्दसे भी जाहिर है। लिखा है कि झरोखेके भीतर सर्यकी किरणों के नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव । प्रविष्ट होनेपर जो सूक्ष्म रजःकण दिखलाई शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति ॥४-१७२ ॥ देते हैं उसको त्रसरेणु कहते हैं । आठ त्रसरेणु . (-मनुस्मृतिः।) ओंकी एक लीख, तीन लीखोंका एक राजसर्षप, नाधर्मस्त्वरितो लोके सद्यः फलति गौरिव । तीन राजसर्षपोंका एक गौरसर्षप और छह शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति ॥ ४-८५॥ गौरसर्षपोंका एक मध्यम यव (जौ ) होता. - (-भद्रबाहु स०) है। यथाः -- ये दोनों पद्य प्रायः एक हैं । भद्रबाहुसंहि जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्म दृश्यते रजः । ताके पद्यमें जो कुछ थोड़ासा परिवर्तन है वह प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते ॥ १३२॥ समीचीन मालूम नहीं होता । उसका ‘मिश्रं' त्रसरेणवोऽटौ विज्ञेया लिका परिमाणतः । पद बहुत खटकता है और वह यहाँ पर कुछ ता राजसर्षपस्तिस्रस्ते त्रयो गौरसर्षपाः ॥१३३ ॥ भी अर्थ नहीं रखता । यदि उसे किसी तरह सर्षपाः षट् यवो मध्यः..................) पर 'सद्यः' का पर्यायवाचक शब्द 'शीघ्र' भद्रबाहसंहिताके कर्ताने मनुस्मृतिके इस मान लिया जाय तो ऐसी हालतमें 'स्त्वरितो' कथनमें त्रसरेणुसे परमाणुका अभिप्राय समझकर के स्थानमें 'श्चरितो' भी मानना पड़ेगा और तथा राजसर्षप और गौरसर्षपके भेदोंको उड़ातब पद्य भरमें सिर्फ एक शब्दका ही अना- कर जो कथन किया है वह इस प्रकार है:वश्यक परिवर्तन रह जायगा। + यस्य भागो पुनर्नस्यात्परमाणुः स उच्यते । आत्मा वै जायते पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा। तेऽौ लिक्षा त्रयस्तच्च सर्षपस्ते यवो हि षट् ॥३-२५२॥ तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धन हरेत् ॥९-२६॥ - + इससे पहले श्लोकमें त्रसरेण्वादिके भेदसे ही मानदायभाग प्रकरणका यह पय वही है जो , संज्ञाओंके कथनकी प्रतिज्ञा की गई है जिससे मालूम मनुस्मृतिके ९ वें अध्यायमें नं० १३० पर दर्ज होता है कि ग्रंथकर्ताने त्रसरेणुको परमाणु समझा है। है। सिर्फ उसके 'यथैवात्मा तथा पुत्रः' के यथाः संसारख्यवहारार्थ मानसंज्ञा प्रकथ्यते । हेमस्थानमें 'आत्मा वै जायते पुत्रः' यह वाक्य रत्नादिवस्तूनां त्रसरेण्वादिभेदतः ॥ २५१ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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