Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 56
________________ ५७४ जैनहितैषी - तथा मैत्री भावका प्रचार करना, तथा जैनधर्मका प्रसार करना, रहा है । + + इसमें सन्देह नहीं कि सांप्रदायिकत्व भारतकी एकताका शत्रु है । एकता ही हमारी उन्नतिका महामंत्र है। हमारे सामने इंडियन नेशनल काँग्रेसका उदाहरण विद्यमान है । क्या हिन्दू तथा मुसलमानोंमें जो भेद है उससे श्वेतांबरी व दिगंबरियों में ज्यादा भेद है ? अथवा क्या श्वेतांबरी या दिगंबरियोंमें और हिंदू अथवा मुसलमानों में जो भेद है उससे दिगंबरी श्वेतांवरियों में ज्यादा भेद है ? फिर क्यों हम मिलकर कार्य नहीं कर सकते ? + + परन्तु हमारी भिन्न भिन्न संप्रदायों में इस एकता व सदुद्योग स्थापित करनेके हमारे पवित्र कार्य के मार्ग में कुछ कारण ऐसे हैं जो सदा बाधाओंके रूपमें उपस्थित रहते हैं और जिनमें हमारे तीर्थक्षेत्रों के संबन्धके झगड़े ये एक प्रधान कारण हैं । प्यारे भाइयो, क्या आप इस बातको स्वीकार नहीं केरगें कि हमारे पवित्र तीर्थक्षेत्रोंके संबन्ध में तीर्थंकर भगवान के हम सब अनुयायियों को इस प्रकार लड़ते रहना हमारे लिए बहुत भारी लज्जाका कारण है ? इन झगड़ों को लेकर हम न्यायालयोंमें अभियोग उपस्थित कर अपने द्रव्यका तथा अपनी शक्तिका जो नाश करते हैं क्या हमारे समान शांतिप्रिय जातिके लिए यह शोभाका कारण हो है ? क्या इन झगड़ोंसे हमारे बीच में परस्पर वैमनस्य बढ़कर हमारे सार्वजनिक सदाचारको हानि नहीं पहुँचती ? सकता अभियोग या मुकद्दमा लड़नेको व्यक्तियोंका युद्ध जो कहा गया है यह बिलकुल ठीक है । इस प्रकार आपस में लड़ना, तीर्थक्षेत्रोंके संबन्ध में कल्पित सत्त्वों का निष्पादन अथवा उनकी रक्षाके करने के भ्रम में अपनी शक्तिका नाश करना, यह हमारे सभ्य होने में निश्वयमेव सन्देह पैदा करता है । यदि हम सभ्य होने का दावा रखते हैं तो हमें चाहिए कि Jain Education International हम अन्य उचित मार्गों द्वारा अपने झगड़ोंका निपटारा करें। महाशयगण, मेरे कथनका अर्थ आप यह कदापि न समझें कि वास्तविक सत्त्वोंकी रक्षा करनेके लिए भी, सच्चे हकोंका पालन करने के लिए भी, हमें कुछ न करना चाहिए। अपने उचित सत्त्वोंकी रक्षा के लिए लड़ना मैं उचित ही नहीं बरन आवश्यक भी समझता हूं, परन्तु साथही मेरा यह भी निवेदन है कि सत्त्वसंबन्धी झगड़ोंका निर्णय न्यायालय में जानेकी अपेक्षा अन्य उपायसे यदि हो सके तो उस उपाय से काम न लेकर एकदम सीधे न्यायालयका मार्ग धारण करना सर्वथा अनुचित है । + + किसी भी संप्रदाय का यह उद्योग करना कि दूसरी संप्रदायवाले उसकी अनुमतिसे ही तीर्थराज पर पूजा कर सकें कौमकी उन्नतिका बहुत बड़ा बाधक है, अतएव इस प्रकारके भावोंको दूर कर इस झगड़े को हमें तय करना चाहिए । हालही में नीचेकी अदालतने जो फैसला कर दिया है संभव है कि उसके विपरीत दोनों ओरसे अपीलें की जाँय इसलिए इसी अवसर पर हमें प्रयत्न करना चाहिए कि ऐसा न किया जावे ! + + यह जान कर संतोष होता है कि इस प्रकारके प्रयत्नका आरंभ कर दिया गया है । इस प्रयत्न करनेवालोंको - विशेष कर हमारे प्रसिद्ध धर्मबंधु श्रीयुत वाडीलाल मोतीलाल शाहको -जितना हम धन्यवाद दें कम है, परन्तु ऐसा न करके कुछ सज्जन पुरुषोंने उनका उद्योग निष्फल करनेकी चेष्टा की है, व उन्हें बुरी इच्छासे यह उद्योग करनेका अपवाद लगाया है । श्रीयुत वाडीलालजीने इन अभियोगोंको तय करानेके लिए जो उपाय बताया है संभव है कि हमें वह उचित न जान पड़े, परन्तु अपना मत-भेद प्रकट करने के लिए यह आवश्यक नहीं था कि उन्हें मिथ्या अपवाद लगाया जाय, तथा उन्हें व उनके सहायकों के प्रति कुशब्दों का प्रयोग किया जाय। उन लोगोंको For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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