Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 57
________________ CHRIMAMAIMIMILAIMIMILAIMIMIRI सभापतिका व्याख्यान । FitTIMIRE ५७५ छोड़कर जिनको इन अभियोगोंसे प्रकट अथवा मेरी समझसे इन झगड़ोंका निपटारा होनेकी बहुत अप्रकट रूपसे लाभ पहुँचता हो+क्या कोई यह कुछ आशा है ।+x कहनेको तैयार है कि यदि अन्य किसी उपायसे प्रियबन्धुओ, हमारे लिए सबसे अधिक महत्त्वका इन अभियोगोंका अंत किया जासके जो दोनों __प्रश्न जिसकी ओर हमें विशेष ध्यान देना चाहिए पक्षवालोंको स्वीकृत हो तो वह हमारे लिए अभि वह हमारी संख्याके ह्रासका-हमारी संख्यामें नन्दनीय न होगा ? तब फिर क्या यह उचित था जो प्रतिदिन अधिकाधिक घटी होती जा रही कि इसके लिए जो उद्योग किया गया उसका इस है उसका है। यह बहुत बड़े खेदका विषय प्रकार विरोध किया जाय ? प्रिय प्रतिनिधिगण, है दःखकी बात है कि गत बीस वर्षों में क्षमा कीजिए । मेरी सम्मतिमें भी श्रीयुत वाडीला- हमारी संख्या में बहुत बडी कमी हुई है । लजीने जो उपाय बताया है वह उचित नहीं जान जान मनुष्यगणनाकी रिपोर्टोसे विदित हो चुका है ने पड़ता । मेरा अनुभव है कि अभियोग लड़नेवालोंको कि सन् १८९१ में हमारी संख्या १४,१६,६३८ धर्म व नीतिका उपदेश करनेसे—Councels of थी। बादमें यही संख्या घट कर सन् १९०१ perfection देनेसे-वे लड़ना नहीं छोड़ते । मैं में १३.३४.१४० हो गई और सन् १९११ में यह माननेके लिए तैयार नहीं हूं कि प्रत्येक दशामें केवल १२,४८,१८२ रह गई । अर्थात् सन् न्यायालयद्वारा निर्णय करानेकी अपेक्षा मध्यस्थों १८९१ से १९११ तक हमारी संख्यामें अनुमान द्वारा निर्णय कराना उत्तम है, और मेरे विचारमें प्रति सैकडा ११ की कमी हुई है; और इस शिखरजी संबन्धी इन अभियोगोंका निर्णय न्याया- घटीका परिमाण प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है, लयद्वारा अथवा मध्यस्थोंद्वारा करानेमें अधिक क्योंकि १९०१ में इस घटीका परिमाण ५.८ अंतर नहीं । परन्तु इसका अर्थ आप यह न समझें था, परन्तु सन् १९११ में यह बढ़कर ६.४ हो कि मैं न्यायालयमें प्रिवीकौंसिल तक लड़ते रहनेकी गया । प्रिय महाशयो, इस हिसाबसे याद हमारी सम्मति दे रहा हूं। मेरे विचारमें इन अभियो- संख्या आगे भी घटती गई तो अनुमान आगामी गाका निर्णय करनेका सबसे उत्तम उपाय यह होगा एक सौ दशवर्षों में पृथ्वीपर हमारी कौमका नाम कि इनका आपसहीमें निर्णयद्वारा- Amicable भी न रहने पावेगा। निःसन्देह हमारे लिए यह एक settlement द्वारा--अंत किया जाय । इस बहत बडे दःखकी बात है कि भारतकी अन्य प्रकारका निर्णय दोनों बाजुओंकी सम्मति के साथ कौमोंकी संख्यामें तो वृद्धि होती जाय और हानेके कारण दोनोंको संतोषदायक होगा । इसके हमारी संख्याका क्षय होता जाय । सन् १८९१ लिए यह आवश्यक है कि दोनों ओरकी सम्मति- से १९०१ के दरमियान बौद्धोंकी संख्या ३२.९, योंका परस्परमें परिवर्तन कराया जाय। हमें चाहिए ईसाइयोंकी संख्या २८, सिक्खोंकी संख्यामें कि हम एक ऐसी प्रभावशाली कमेटी नियुक्त करें १५.१, मुसलमानोंकी संख्या में ८.९, और पारजिसके कुछ सभासद दोनों संप्रदायोंके निष्पक्ष सियोंकी संख्या ४.७, प्रति सैकड़ा वृद्धि हुई है, व्यक्ति हों तथा विश्वसनीय अन्यमती भी सभासद परन्तु हिन्दुओंमें '३ की व हमारी कौमकी संख्यामें हों। यह कमेटी दोनों पक्षोंके मुखियाओंके साथ ५.२ प्रति सैकड़ा कमी हुई । सन् १९०१ से सन् परामर्श करके उनकी सम्मतियां जानकर तस्फियेकी १९११ के दरमियान् जैनियोंको छोड़कर सब शर्ते निश्चित करावे । यदि ऐसा किया जायगा तो कौमोंकी संख्यामें वृद्धि हुई । बौद्धोंमें १३,१, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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