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छपाई है, उसमें आपके बनाये हुए छह पद संग्रहीत हैं । जान पड़ता है, ये उसी 'गीतपरमाथीं' के गीत या पद होंगे। इनमें भी परमार्थ तत्त्वका कथन है । एक गीतका पहला पद सुनिए: -
चेतन, अचरज भारी, यह मेरे जिय आवै । अमृतवचन हितकारी, सदगुरु तुमाह पढ़ावै ॥ सदगुरु तुमहिं पढ़ावै चित है, अरु तुमहू हौ ज्ञानी । तब तुमहिन क्योहू आवै, चेतनतत्व कहानी ॥ विषयनिकी चतुराई कहिए, को सरि करे तुम्हारी । विन गुरु फुरत कुविद्या कैसे, चेतन अचरज भारी ॥
जैनहितैषी -
आपका एक छोटासा काव्य ' मंगलगीत - प्रबन्ध' जैनसमाज में बहुत ही प्रचलित है । ' पंचमंगल' के नामसे यह पाँच छह बार छप चुका है। इसमें तीर्थंकर भगवान के जन्म, ज्ञान, निर्वाण आदिके समय जो उत्सवादि होते हैं उनका साम्प्रदायिक मानताओं के अनुसार वर्णन है | रचना साधारण है ।
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६ रायमल्ल | ये भट्टारक अनन्तकीर्तिके शिष्य थे। इनका बनाया हुआ एक 'हनुमच्चरित्र नामका पयग्रन्थ है । यह विक्रम संवत् १६१६ में बनाया गया है । यह ग्रन्थ हमें मिल नहीं सका, इस लिए इसकी रचना किस दर्जे की है, यह हम नहीं कह सकते । हमारे एक मित्रने इसकी कविताको साधारण बतलाया है । कविवर बनारसीदासजी ने जिन रायमल्लजीका उल्लेख किया है, मालूम नहीं वे ये ही थे अथवा इनसे भिन्न । बनारसीदासजी ने लिखा है कि पाण्डे " रायमल्लजी समयसार नाटक के मर्मज्ञ थे, उन्होंने समयसारकी बालावबोधिनी भाषा टीका बनाई जिसके कारण समयसारका बोध घर घर फैल गया।" यह
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बालावबोध टीका अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। मालूम होता है यह बनारसीदासजी के बहुत पहले बन चुकी थी । उनके समय इसका खासा प्रचार था । अवश्य ही यह पंद्रहवीं शताब्दीकी रचना होगी और भाषा की दृष्टिसे एक महत्त्वक वस्तु होगी ।
एक और रायमल्ल ब्रह्मचारी हुए हैं जिन्होंने संवत् १६६७ में ' भक्तामरकथा ' नामका संस्कृत ग्रन्थ बनाया है । ये सकलचन्द्र भट्टारकके शिष्य थे और हूमड़जाति के थे । मालूम होता है भविष्यदत्तचरित्र ( छन्दोबद्ध ) और सीता चरित्र ( छन्दोबद्ध ) नामक ग्रन्थ भी इन्हीं बनाये हुए हैं। इनमें से पहला ग्रन्थ सं० १६६३ में बना है, ऐसा ज्ञानचन्दजीकी सूची - से मालूम होता है ।
७ कुँवरपाल | ये बनारसीदासजी के एक मित्र थे । युक्तिप्रबोधमें लिखा है कि बनारसीदासजी अपनी सैलीका उत्तराधिकारत्व इन्हींको सोंप गये थे । प्रवचनसारकी टीकामें पाँड़े हेमराजजीने इनको अच्छा ज्ञाता बतलाया है । ये कवि भी अच्छे जान पड़ते हैं। इनका कोई स्वतंत्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है; परन्तु बनारसीदासकृत सूक्तमुक्तावीमें इनके बनाये हुए कुछ पद्य मिलते हैं ! लोभकी निन्दाका एक उदाहरण:
परम धरम वन द है, दुरित अंबर गति धारहि । कुयश धूम उदगरै, भूरि भय भस्म विधारहि ॥ दुख फुलिंग फुंकरै, तरल तृष्णा कल काढ़हि ॥ धन ईंधन आगम सँजोग दिन दिन अति बाढ़ हि ॥ लहलहै लोभ-पावक प्रबल, पवन मोह उद्धत है ॥ दज्झहि उदारता आदि बहु, गुण पतंग 'कँवरा' कहै ॥ ५९ ॥
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( अपूर्ण । )
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