Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 49
________________ हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास । जिनकी ढालोंका अनुकरण किया गया है | मृगांकलेखाकी कथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बहुत प्रसिद्ध है । अतएव ' मृगांक लेखा की च उपईं ' कोई जैन ग्रन्थ ही था । ४ हेमविजय | ये अच्छे विद्वान और कवि थे । सुप्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरिके शिष्यों मे से थे । इन्होंने विजयप्रशस्ति महाकाव्य और कथारत्नाकर आदि अनेक संस्कृत ग्रंथोंकी रचना की है । हिन्दी में भी इनकी छोटी छोटी रचनायें मिलती हैं । ये आगरा और दिल्ली तरफ बहुत समय तक विचरण करते रहे थे, इस लिए इन्हें हिन्दीका परिचय होना स्वाभाविक है । इन्होंने हीरविजयसूरि और विजयसेनसूरि आदि की स्तुति में छोटे छोटे बहुत से हिन्दी पद्य बनाये हैं । तीर्थकरों की स्तवनाके भी कुछ पद रचे हुए मिलते हैं । नमूने के तौर पर नेमिनाथ तीर्थकर के स्तुतिपयको देखिए । घनघोर घटा उनयी जु नई, इततैं उततैं चमकी बिजली । पियरे पियरे पपिहा बिललाति जु, मोर किंगार ( ? ) करंति मिली । बिच बिंदु परं दृग आँसु झरें, 'दुनि धार अपार इसी निकली । मुनि हेमके साहिब देखनकू, उग्रसेन लली सु अकेली चली । कहि राजिमती सुमती सखियानकं, एक खिनक खरी रहुरे । सखिरी सगरी अंगुरी मुही बाहि करति (?) बहुत (?) इसे निहुरे । अबही तबही कही जबही, यदुरायकूं जाय इसी कहुरे । मुनि हेमके साहिब नेमजी हो, अब तोरनतें तुम्ह क्यूं बहुरे । ५ रूपचन्द | ये कविवर बनारसीदासजीके समय आग में हुए हैं । बनारसादासजीने अपने Jain Education International आत्मचरितमें और नाटक समयसारमें इनका उल्लेख किया है और इन्हें बहुत बड़ा विद्वान् बतलाया है । ये जैनधर्मके अच्छे मर्मज्ञ थे । आध्यात्मिक पाण्डित्य भी इनमें अच्छा था, यह बात इनके परमार्थी दोहाशतक ' और पदोंके देखनेसे जान पड़ती है । परमार्थी दोहा शतक को हमने पाँच छह वर्ष पहले जैनहितैषी में प्रकाशित किया था। बड़े ही अच्छे दोहे हैं। उदाहरण:-- चेतन चित् परिचय बिना, जप तप सबै निरत्थ । कन बिन तुस जिभि फटकतें, आवै कछू न हत्थ । चेतनसौं परिचय नहीं, कहा भये व्रतधारि । सालि बिहूनें खेतकी, वृथा बनावत वारि ॥ बिना तत्त्वपरिचय लगत, अपरभाव अभिराम । ताम और रस रुचत हैं, अमृत न चाख्यौ जाम ॥ भ्रमतैं भूल्यौ अपनपौ, खोजत किन घटमाहि । विसरी वस्तु न कर चढ़े, जो देख घर चाहि । घट भीतर सो आपु है, तुम नहीं कछु यादि । वस्तु मुठा मैं भूलिकै, इत उत देखत वादि ॥ ८ ५६७ प्रत्येक दोहे के पूर्वार्धमें एक बात कही गई है और उत्तरार्ध में वह उदाहरणसे पुष्ट की गई है। सबके सब दोहे इसी प्रकारके हैं। इनमें परमार्थका या आत्माका तत्त्व बड़ी ही सुंदरतासे समझाया गया है। ' गीत परमार्थी' नामका ग्रन्थ भी आपका बना हुआ है, जो अभी तक उपलब्ध नहीं है । हमने एक 'परमार्थ जकड़सिंग्रह ' नामकी पुस्तक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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