Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 47
________________ हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास । राजानी अति मानिता, वनितामाहिं प्रधान ॥ ७६ ॥ संवत सोल त्रयाला वरसिइ, एह प्रबन्ध कियउ मन हरसिहि । विक्रम नयरइ रिषभ जिणेसा, जसु समरण सबि टलइ किलेसा ॥८४॥ ३ मालदेव । ये बड़गच्छीय भावदेवसूरिके शिष्य थे । साधारणतः ये 'माल' के नाम से प्रसिद्ध हैं। अपने ग्रंथों में भी ये 'माल कहइ' या 'माल भणइ' इस तरह अपना उल्लेख करते हैं । इनके बनाये हुए दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, एक 'भोज - प्रबन्ध' और दूसरा 'पुरन्दर कुमरच उपई ' । ‘पुरन्दरकुमरचउपई' विक्रम संवत् १६५२ का बना हुआ है।यह ग्रन्थ श्रीयुत मुनि जिनविजयजीके पास । इसके विषय में आप अपने पत्र में लिखते हैं कि "यह पुरन्दर कुमर चउपई ग्रन्थ हिन्दीमें है ( गुजरातीमें नहीं ) । इसे मैंने आज ही ठीक ठीक देखा है। रचना अच्छी और ललित है। जान पड़ता है 'माल' एक प्रसिद्ध कवि हो गया है। गुजराती प्रसिद्ध कवि ऋषभदासने अपने 'कुमारपाल रास' में जिन प्राचीन कवियोंका स्मरण किया है, उनमें मालका नाम भी . है । वह 'माल' और कोई नहीं किन्तु 'भोजप्रबन्ध' और 'पुरंदर चउपई ' का कर्त्ता ही होना चाहिए। ' पुरंदर चउपई' का आदि और अन्तिमभाग यह है : आदि: वरदाईश्रुत देवता, गुरु प्रसादि आधार । 'कुमर - पुरंदर' गाइस्यूं, सीलवंत सुविचार ॥ नरनारी जे रसिक ते, सुणिहु सब चितु लाइ । ठूंठ न कब हि घुमाइयहिं, विना सरस तरु नाइ ॥ Jain Education International ५६५ सरस कथा जइ होई तौ, सुणइ सविहि मन लाइ । जिहाँ सुवास होवहि कुसुम, सरस मधुप तिहाँ जाइ ॥ अंतः- भावदेवसूरि गुणनिलउ, बडगछ- कमल - दिणंद । तासु सुसीस शिष्य ( ? ) कहइ, मालदेव आनंद ॥” ये लोग सिन्ध और पंजाबके मध्यमें रहा करते थे। ऐसा सुना गया है कि भावदेवसूरि के उपाश्रय अब भी बीकानेर राज्य के 'भटनेर' और ' हनुमानगढ़ ' नामक स्थानों में हैं । " दूसरा ग्रन्थ 'भोजप्रबन्ध' उक्त मुनि महोदय मेरे पास भेज देने की कृपा की है । इसकी प्रतिमें शुरू के दो पत्र, अन्तका एक पत्र और बीच के २० से २४ तकके पृष्ठ नहीं हैं । पद्यसंख्या १८०० है । इसमें तीन सम्बन्ध या अध्याय हैं। पहलेमें भोजके पूर्वजोंका, भोजके जन्मका और वररुचि धनपालादि पण्डितोंकी उत्पत्तिका वर्णन है, दूसरे में परकायाप्रवेश, विद्याभ्यास, देवराजपुत्रजन्म, और मदनमंजरीका विवाह तथा तीसरे में देवराज बच्छराज विदेशगमन और भानुमतीके समागमका वर्णन है । यद्यपि यह प्रबन्धचिन्तामणि तथा बल्लाल के भोजप्रबन्ध आदि आधारसे बनाया गया है; तथापि इसकी रचना स्वतंत्र है । 'कविरनुहरतिच्छायां' के अनुसार उक्त थकी छाया ही ली गई है । भाषा प्रौढ है; परन्तु उसमें गुजरातीकी झलक है और अपभ्रंश शब्दोंकी अधिकता है । वह ऐसी साफ नहीं है जैसी उस समय के बनारसीदासजी आदि कवियोंकी है । कारण, कवि और राजगुजरात पूतानेकी बोलियों से अधिक परिचित था । वह प्रतिभाशाली जान पड़ता है । कोई कोई पय बड़े ही चुभते हुए हैं: For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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