Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास । अर्धकथानक में कविवरने अपने जीवनकी तमाम छोटी मोटी दुखसुखकी बातोंका बहुत ही अच्छे ढंगसे वर्णन किया है जिनका पढ़नेवालों पर गहरा प्रभाव पड़ता है । उन्होंने अपने तमाम बुरे और भले कर्मोंका - गुणों और अवगुणोंका- इसमें चित्र खींचा है । वे जहाँ अपने गुणों का वर्णन करते हैं वहाँ दुर्गुणों का भी करते हैं । दुर्गुण भी ऐसे वैसे नहीं, जिन्हें साधारण लोग स्वममें भी नहीं कह सकते हैं, उन्हें उन्होंने लिखा है । इससे उनकी महानुभावता प्रकट होती है - यह मालूम होता है कि उनका आत्मा कितना बहुत ही और संसार के मानापमान से परे आकाशमें विहार करनेवाला था । अपनी जीवनकथासे सम्बन्ध रखनेवाली उस समयकी उन्होंने ऐसी अनेक बातों का वर्णन किया है जो बहुत ही मनोरंजक और कुतूहलवर्द्धक हैं | मुगल बादशाहों के राज्य में वणिक महाजनों को जो कष्ट होते थे, साधारण प्रजा जो कष्ट पाती थी, अधिकारी लोग जो अत्याचार करते थे, उनका वर्णन भी इसमें जगह जगह पर पाया जाता है । विक्रम संवत् १६७३ में आगरेमें प्लेग रोगका प्रकोप हुआ था, इस घटनाका भी कविने उल्लेख किया है: इस ही समय इति विस्तरी, परी आगरे पहिली मरी । जहाँ तहाँ सब भागे लोग, परगट भया गांठका रोग ॥ ५७४ निक गांठ मरै छिन माहिं, काहूकी बसाय कछु नाहिं । चूहे मरें वैद्य मर जाहिं, भयसौं लोग अन्न नहिं खाहिं ॥ ७५ बनारसीदासजी पर एक बार बड़ी विपत्ति आई थी । उनके पास एक पाई भी खर्च कर Jain Education International ५६३ नेके लिए नहीं थी । सात महीने तक वे एक कचौरीवालेकी दूकानसे दोनों वक्त पूरी कचौरी उधार लेकर खाते रहे । जब हिसाब किया, तो उसका दाम कुल १४ रुपया हुआ ! अर्थात् उस समय आगरे जैसे शहरमें दो रुपये महीने में आदमी दोनों वक्त बाजारकी पूरी कचौरी खा सकता था । इससे उस समय के ' सुकाल ' का पता लगता है । जिस समय बादशाह अकबरके मरनेका समाचार जौनपुर पहुँचा, उस समय वहाँके निवासियोंकी दशाका वर्णन कविने इस प्रकार किया है: इसी बीच नगर मैं सोर, भयौ उदंगल चारिहु ओर । घर घर दर दर दिये कपाट, टवानी नहिं बैठे हाट ॥ ५२ ॥ भले वस्त्र अरु भूषन भले, ते सब गाड़े धरती तले । हंडवाई ( ? ) गाड़ी कहूं और, नगद माल निरभरमी ठौर ॥ ५३ ॥ घर घर सबनि बिसाहे सत्र, लोगन्ह पहिरे मोटे वस्त्र । ठाढ़ी कंबल अथवा खेस, नारिन पहिरे मोटे वेस ॥५४ ॥ ऊँच नीच कोऊ न पहिचान, धनी दरिद्री भये समान । चोरी धारि दिसे कहुं नाहिं, यही अपभय लोग डराहिं ॥ ५५ इससे श्रोतागण उस समय के राजशासनकी परिस्थितियोंका बहुत कुछ अनुमान कर सकेंगे । समय न रहने के कारण मैं इस ग्रन्थका और अधिक परिचय नहीं दे सकता । जो महाशय अधिक जानना चाहते हों, वे मेरे द्वारा सम्पादित बनारसीविलास के प्रारंभ में इस ग्रन्थका विवरण पढ़नेका कष्ट उठावें । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104