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तिनकौं दुविधा - जे लखें, रंग विरंगी चाम । मेरे नैनन देखिए,
जैनहितैषी -
घट घट अन्तर राम ॥ १० ॥ गुप्त यह है
यह बाहर यह माहिं ।
जब लग यह कछु है रहा, तब लग यह कछु नाहिं ॥ ११ ॥ दूसरा ग्रन्थ नाटक समयसार है । प्राकृत भाषामें भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यका बनाया हुआ समयसार नामका एक ग्रन्थ है और उस पर अमृतचन्द्राचार्य कृत संस्कृत व्याख्यान है। नाटक समयसार इन्हीं दोनों ग्रन्थोंको आधार मानकर लिखा गया है। मूल और व्याख्यानकं मर्मको समझ कर उसे इन्होंने अपने रंग में रंगकर अपने शब्दोंमें अपने ढंगसे लिखा है । बड़ा ही अपूर्व ग्रन्थ है । इसका प्रचार भी खूब हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें इसका खूब आदर है । इस पर कई टीकायें भी बन चुकी हैं और उनमें से दो छप भी गई हैं । जो सज्जन वेदान्त के प्रेमी हैं, उनसे हमारा अनुरोध है कि वे इस ग्रन्थको अवश्य ही पढ़ें । जैनधर्मके सिद्धान्तोंका जिन्हें परिचय है, वे इसे पढ़कर अवश्य प्रसन्न होंगे। इसका केवल एक ही सीधा साधा पद्य सुनाकर मैं आगे बढ़गा:भैया जगवासी, तू उदासी हैकै जगतसौं, एक छै महीना उपदेस मेरो मानु रे । और संकलप विकलपके विकार तजि, बौठके एकंत मन एक ठौर आनु रे ॥ तेरौ घट सर तामैं तू ही है कमल वाकौ, तू ही मधुकर है सुवास पहिचानु रे । प्रापति न है है कछू ऐसें तू विचारतु है, सही है है प्रापति सरूप यौंही जानु रे ॥
भाषा की दृष्टिसे भी इसकी रचना उच्चश्रेणीकी | भाषापरकविको पूरा अधिकार हैं।
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श
ब्दों को तोड़े-मरोड़े बिना उन्होंने उनका प्रयोग किया है । छन्दोभंगादि दोषोंका उनके ग्रन्थमें अभाव है।
तीसरा ग्रन्थ अर्धकथानक है । यह ग्रन्थ उन्हें जैनसाहित्यके ही नहीं, सारे हिन्दी साहित्यके बहुत ही ऊँचे स्थानपर आरूढ़ कर देता है । एक दृष्टि से तो वे हिन्दी के बेजोड़ कवि सिद्ध होते हैं । इस ग्रन्थ में वे अपना ५५ वर्षका आत्मचरित लिखकर हिन्दी साहित्य में एक अपूर्व कार्य कर गये हैं और बतला गये हैं कि भारतवासी आजसे तीन सौ वर्ष पहले भी इतिहास और जीवनचरितका महत्त्व समझते थे और उनका लिखना भी जानते थे । हिन्दी में ही क्यों, हमारी समझमें शायद सारे भारतीय साहित्य में ( मुसलमान बादशाहों के आत्मचरितोंको छोड़कर ) यही एक आत्मचरित है, जो आधुनिक समयके आत्मचरितोंकी पद्धति पर लिखा गया है । हिन्दी भाषाभाषियों को इस ग्रन्थका अभिमान होना चाहिए।
अर्धकथानक छोटासा ग्रन्थ है । सब मिलाकर इसमें ६७३ दोहा-चौपाइयाँ हैं । इसमें कविने अपना विक्रम संवत् १६९८ तक का ५५ वर्षका जीवनचरित लिखा है । ग्रन्थके अन्त में कविने लिखा है कि आजकलकी उत्कृष्ट आयुके हिसाब से ५५ वर्षकी आयु आधी है। इस लिए इस ५५ वर्षके चरितका नाम 'अर्धकथानक' हुआ है । यदि जीता रहा और बन सका, तो मैं शेष आयुका चरित और भी लिख जाऊँगा ! मालूम नहीं कविवर आगे कब तक जीते रहे और उन्होंने आगेका चरित लिखा या नहीं । जयपुर के बाबा दुलीचन्दजीने अपनी सूची में बनारसी पद्धति नामका ५०० श्लोकपरिमित एक और ग्रन्थका उल्लेख किया है । आश्चर्य नहीं, जो उसीमें उनकी शेषजीवनकी कथा सुरक्षित हो ।
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