Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ हिन्दी - जैन साहित्यका इतिहास । इन पयोंके साथ 'पृथ्वीराजरासो' या उसी समय के लिखे गये किसी और ग्रंथके पद्योंका यदि मिलान किया जाय तो भाषाविषयक बहुत कुछ सादृश्य ही नहीं बिलकुल एकता दिखाई देगी । ऐसी दशा में 'पृथ्वीराजरासो' यदि हिन्दीहीका ग्रंथ गिना जाने योग्य है, तो उसके आसपास के बने हुए जैन ग्रंथ भी जिनका उल्लेख आगे किया गया है हिन्दी ग्रंथ गिने जाने योग्य हैं । इस उल्लेखसे, हमने जो हिन्दी का प्रारंभ १३ वीं शताब्दीके मध्यसे माना है वह भी युक्तिसंगत मालूम देगा और साथ में, जिस तरह अजैनोंके रचे हुए हिन्दी ग्रंथ, उसके प्रारंभकालके मिलते हैं वैसे जैनोंके भी मिलने के कारण हिन्दीका इतिहास लिखने में उनकी उपयोगिता कितनी अधिक है यह भी भली भाँति ज्ञात हो जायगा । हमने अगले पृष्ठों पर १३ वीं, १४ वीं और १५ वीं शताब्दी के जिन जैन ग्रंथों को हिन्दी के या उससे बहुत मिलती जुलती हुई भाषाका माना है, उनके अवलोकनसे हिन्दी के विकाशकी बहुत कुछ नई नई बातें और नये नये रूप मालूम होंगे, जो हमारी भाषा के शरीरसङ्गठनका इतिहास लिखमें अति आवश्यक साधन हैं। अजैन साहित्यमें, जब चंदके बाद गोरखहीका ग्रंथ हमें दृष्टिगोचर होता है - मध्यका कोई नहीं तब, जैन साहित्यमें इस बीच के पचासों ग्रंथ खोज करने पर मिल सकते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि हिन्दीका संपूर्ण इतिहास तैयार करने में जैनसाहित्यसे महत्त्वकी सामग्री मिल सकती है । तेरहवीं शताब्दी | १ जम्बूस्वामी रासा । बड़ोदा महाराजकी सेंट्रल लायब्रेरीकी ओरसे निकलने वाले .' लाइब्रेरी मिसेलेनी ' नामके त्रैमासिक पत्रकी अप्रैल १९१५ की संख्या में श्रीयुत चिम्मन - लाल डाह्याभाई दलाल एम. ए. का एक महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुआ है । उसमें उन्होंने सुप्रसिद्ध जैन पुस्तकालयों की खोज करनेसे प्राप्त हुए अलभ्य संस्कृतप्राकृत - अपभ्रंश और प्राचीन गुजरातीके ग्रन्थोंका विवरण दिया है । उसमें 'जम्बूस्वामी ५-६ Jain Education International ५५३ रासा' नामका एक ग्रन्थ है । यह महेन्द्रसूरि शिष्य धर्मसूरिने सं० १२६६ में बनाया है । लेखक इसकी भाषाको प्राचीन गुजराती बतलाते हैं और इसे उपलब्ध गुजराती साहित्य में सबसे पहला ग्रन्थ मानते हैं; परन्तु हमारी समझ में चन्दकी भाषा आजकल के हिन्दी जाननेवालों के लिए जितनी दुरूह है, यह उससे अधिक दुरूह नहीं है और गुजराती के साथ इसका जितना सादृश्य है उससे कहीं अधिक हिन्दीसे है । उक्त विवरण परसे हम यहाँ उसके प्रारंभ के दो पद्य उद्धृत करते हैं: जिण चउ-विस पये नमेवि गुरु चरण नमेचि ॥ जंबू स्वामिहिं तं चरियं भविडे निसुणेत्रि ॥ करि सानिध सरसत्ति देवि जीयरयं ( 2 ) कहाणउ । जंबू स्वामिहि (सु) गुणगहण संविवखाणउ ॥ जंबूदीवि सिरि भरह खित्ति तिहिं नर पहाणउ ॥ राजग्रह नामेण नयर पहुंची खाण || राज करइ सेणिये नरिंद्र नरवरहं जु सारो । तासु तैइ (अति) बुद्धिवंत मति अभयकुमारो ॥ २ ॥ २ रेवतगिरि रासा | पाटनके संघवीपाड़ा के भण्डार में 'रेवंत गिरि रासा' नामका एक ग्रन्थ और भी विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीका बना हुआ है 1 वस्तुपालमंत्री के गुरु विजयसेन सूरिने संवत् १२८८ के लगभग- जब कि वस्तुपालने गिरनारका संघ निकाला था - इसे बनाया है । इसमें गिरनारका और वहाँके जैनमन्दिरों के जीर्णोद्धारका वर्णन १ पद-चरण । २ चरित्र । ३ भविक-भव्य । ४ सुनो। ५ संक्षिप्त । ६ नगर । ७ प्रधान । ८ पृथिर्वामें । ९ विख्यात । १० श्रेणिकराजा । ११ तनय पुत्र । * जिस प्रतिसे ये पद्य लिये गये हैं, वह शुद्ध नहीं है, इसलिए इनमें छन्दोभंग जान पड़ता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104