Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 34
________________ mumDIOBILLIBAHAAR ५५२ जैनहितैषी PHTRIPTES HOTOGETiminimundtRED किसीसे नहीं। इसके लिए हमें उन प्राकृत चितताने इन प्रदेशोंकी जो व्यापक भाषा अपग्रंथोंको देखना चाहिए जो हेमचंद्राचार्यके पहले भ्रंश थी उसके भावी विकाशको प्रान्तीय-भाषाक्रमसे ३-४ शताब्दियोंमें, लिखे गये हैं। ओंके भिन्न भिन्न भेदोंमें विभक्त कर दिया । यद्यपि उन सबका अवलोकन अभी तक ठीक यहींसे, गुजराती, राजपूतानी, मालवी, और ठीक नहीं किया गया है तो भी जितना किया हिन्दी भाषाओंके गर्भका सूत्रपात हुआ और धीरे गया है उससे इतना तो नि:संकोच कहा जा धीरे १५ वीं शताब्दीमें पहुँचकर इन भाषाओंने सकता है कि यह अपभ्रंश, शौरसेनी और अपना स्वरूप स्पष्टतया प्रकट कर दिया । महाराष्ट्री प्राकृतका था।दशवीं शताब्दीके पहले- ऐसी दशामें हेमचंद्राचार्यके अपभ्रंशको ही इन के जितने जैन प्राकृतग्रंथ हैं उनमें इन्हीं दोनों उपर्युक्त भाषाओंका मूल समझना चाहिए । इसभाषाओंकी प्रधानता है। दशवीं शताब्दीके की पष्टिमें अपभ्रंशके कुछ पद्य यहाँ पर उद्धृत बादके जो ग्रंथ हैं, उनमें ये भाषायें क्रमसे लुप्त कर देने आवश्यक हैं जो हेमचंद्रसूरिने अपने होती जाती हैं और अपभ्रंशका उदय दृष्टि- व्याकरणमें उदाहरणार्थ, उस समयके प्रचलित गोचर होता है । महाकवि धनपाल, महेश्वरसूरि लोक ग्रंथोंमेंसे-रासाओंमेंसे-उद्धृत किये हैं। और जिनेश्वरसूरि आदिके ग्रंथोंमें अपभ्रंशका ढोल्ला मई तुहुं वारिया आदि आकार तथा रत्नप्रभाचार्यकी उपदेशमाला मा कुरु दीहा माणु। की 'दोघट्टी वृत्ति' और हेमचंद्रसूरिके ग्रंथोंमें निद्दए गमिही रत्तंडी उसकी उत्तरावस्था प्रतीत होती है । ऊपर लिखा दर्डवड होइ विहाँणु॥ जा चुका है कि दशवीं शताब्दीके पहलेके ग्रंथों बिट्टीए मइ भणिय तुहुँ में शद्ध सौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृत है और मा कुरु वंकी दिहि। बादमें उनका विकृतरूप है । कालकी गतिके पुत्ति सकण्णी भल्लि जिवं साथ होनेवाले उन भाषाओंके स्वरूपके भ्रंशही- मारइ हिअई पइहि॥ को हेमचंद्रसूरिने अपभ्रंश नाम दिया और शौर- भल्लों हुआ जु मारिआ सेनी तथा प्राकतके बाद ही अपने व्याकरणमें बहिणि महारा कन्तु। उसका भी व्याकरण लिपिबद्ध कर दिया। लज्जेजंतु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एन्तु ॥ हेमचंद्रसूरिके देहान्तके बाद थोड़े ही वर्षों में भारतमें राज्यक्रांति हुई और राष्ट्रीय परिस्थितिमें १ रात्रिके प्रारंभमें स्त्रीपुरुषके प्रणयकलहकी सघोर परिवर्तन होने लगा। हममें परस्पर ईर्ष्याग्नि माप्तिपर किसी नवयौवनाकी अपने पतिके प्रति यह सुलगने लगी और विदेशी विजेता उसका लाभ उक्ति जान पड़ती है। 'ढोला' शब्द नायकके सउठाने लगे । देशोंका पारस्परिक स्नेह-संबंध म्बोधनमें है । २ वारितः-रोका । ३ दीर्घ । ४ निद्रायां-नींदमें। ५ रात । ६ जल्दी। ७ प्रभात । टटा और एक राज्यके रहनेवाले दूसरे राज्यके ८ रोषातुर पुत्रीके प्रति स्नेही पिताकी उक्ति । रहनेवालोंको शत्रु मानने लगे। इसी कारण, गुज- विद्रीए-हे बेटी । ९ वक्रदृष्टि । १० पुत्री । ११ हृदयमें रात, राजपूताना, अवन्ती और मध्यप्रन्तिके निवा- पैठकर । १२ भावार्थ-हे बहिन भला हुआ जो मेरा सियोंका इसके पहले जितना व्यावहारिक सम्बन्ध पति मर गया । यदि भागा हुआ घर आता तो मैं विस्तृत था उसमें संकुचितता आई । इस संकु- सखियोंमें लजित होती। १३ वयस्यानां मध्ये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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