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हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास। mimminimunitlimiminimit
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१ जैनसाहित्यका महत्त्व। दिखाया जायगा, प्राकृतके अपभ्रंशसे मिलता हिन्दीका जैन साहित्य बहत विशाल है और जुलता है । यह संभव है कि प्राचीन हिन्दीकी बहुत महत्त्वका है । भाषाविज्ञानकी दृष्टिसे उसमें शरीररचनामें अन्य भाषाओंका भी थोड़ा बहुत कुछ ऐसी विशषतायें हैं जो जैनेतर साहित्यमें हाथ रहा हो, पर उसकी मूल जननी तो अपनहीं हैं।
भ्रंश ही है। ऐसा जान पड़ता है कि प्राकृतका १ हिन्दीकी उत्पत्ति और क्रमविकासके इति- जब अपभ्रंश होना आरंभ हुआ, और फिर हासमें इससे बहुत बड़ी सहायता मिलेगी। उसमें भी विशेष परिवर्तन होने लगा, तब हिन्दीकी उत्पत्ति जिस प्राकृत या मागधीसे मानी उसका एक रूप गुजरातीके साँचेमें ढलने लगा जाती है, उसका सबसे अधिक परिचय जैन और एक हिन्दीके साँचेमें । यही कारण है जो विद्वानोंको रहा है । अभीतक प्राकृत या माग- हम १६ वीं शताब्दीसे जितने ही पहलेकी हिन्दी धीका जितना साहित्य उपलब्ध हुआ है, उसका और गुजराती देखते हैं, दोनोंमें उतनी ही अधिकांश जैनोंका ही लिखा हुआ है । यदि यह अधिक सदृशता दिखलाई देती है। यहाँ तक कहा जाय कि प्राकृत और मागधी शुरूसे अब- कि १३ वी १४ वीं शताब्दीकी हिन्दी और तक जैनोंकी ही सम्पत्ति रही है, तो कुछ गुजरातीमें एकताका भ्रम होने लगता है । अत्युक्ति न होगी। प्राकृतके बाद और हिन्दी- उदयवन्त मुनिके 'गौतम-रासा'को जो वि० संवत् गुजराती बननेके पहले जो एक अपभ्रंश भाषा १४१२ में बना है विचारपूर्वक देखा जाय, रह चुकी है उस पर भी जैनोंका विशेष अधि- तो मालूम हो कि उसकी भाषाकी गुजरातीके कार रहा है । इस भाषाके अभी अभी कई ग्रन्थ साथ जितनी सदृशता है, हिन्दीके साथ उससे उपलब्ध हुए हैं, और वे सब जैन विद्वानोंके कुछ कम नहीं है * । गुजराती और हिन्दीकी यह बनाये हुए हैं । प्राकृत और अपभ्रंशके इस अधिक सदृशता कहीं कहीं और भी स्पष्टतासे दिखलाई देती परिचयके कारण, जैन विद्वानोंने जो हिन्दी है । कल्याणदेवमुनिके 'देवराज वच्छराज चउरचना की है उसमें प्राकृत और अपभ्रंशकी प्रकृति पई,' नामके ग्रंथसे-जो सं० १६४३ में बना है सुस्पष्ट झलकती है। यहाँ तक कि १९ वीं और और जिसकी भाषा गजरातीमिश्रित हिन्दी २० वीं शताब्दीके जैनग्रन्थोंकी हिन्दीमें भी है-हमने कुछ पद्य आगे उद्धृत किये हैं, औरोंकी अपेक्षा प्राकृत और अपभ्रंश शब्दोंका जिनमें बहुत कम शब्द ऐसे हैं जिन्हें प्राचीन प्रयोग अधिक पाया जाता है । ऐसी दशामें स्पष्ट हिन्दी जाननेवाला या प्राचीन गुजराती समझहै कि हिन्दीकी उत्पत्ति और क्रमविकाशका नेवाला न समझ सकता हो । गुजरातके पुस्तज्ञान प्राप्त करनेके लिए हिन्दीका जैनसाहित्य कालयोंमें ऐसे बीसों रासे मिलेंगे, जो गुजरातीबहुत उपयोगी होगा।
की अपेक्षा, हिन्दीके निकटसम्बन्धी हैं; पर
है वे गुजराती ही समझे जाते हैं । माल कविका २ गुजराती साहित्यके विद्वानोंका खयाल है कि गुजराती भाषाका जो प्राचीनरूप है, वह .
। 'पुरंदर-कुमर-चउपई' नामका जो ग्रन्थ है, अपभ्रंश प्राकृत है। हमारी समझमें प्राचीन * गौतमरासाके पद्योंके कुछ नमूने आगेके पृष्ठोंमें हिन्दीका आदिस्वरूप भी, जैसा कि आगे दिये गये हैं।
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