Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 22
________________ @ @ अथवा @@@ 0000000000000000000000000000 हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास । 9 जैन लेखकों और कवियों द्वारा हिन्दी साहित्यकी सेवा । (මළපුවපිළපිපිටපළපපපපපපපපපපපපඩිපළම सभापति महाशय और सभ्यवृन्द ! ___ इस असहिष्णुता या अनुदारताने देशकी भारतवर्षको अपनी धार्मिक सहिष्णुताका बौद्धिक और राष्ट्रीय उन्नातके मार्गमें खूब ही अभिमान है। इस पुण्यभूमिमें आस्तिक, नास्तिक, काँटे बिछाये । इससे हमारी मानसिक प्रगतिको वैदिक, अवैदिक, ईश्वरवादी, अनीश्वरवादी आदि लकवा मार गया और हमारे साहित्यकी बाढ़ सभी परस्परविरुद्ध विचार रखनेवाले एक दूसरेको अनेक छोटी बड़ी सीमाओंके भीतर अवरुद्ध कष्ट दिये विना फलते-फूलते और वृद्धि पाते हो गई । इसकी कृपासे ही हमारा बहुतसा रहे हैं । हजारों वर्षों तक यहाँ यह हाल रहा साहित्य पड़ा पड़ा सड़ गल गया और बहुतसा है कि एक ही कुटुम्बमें वैदिक, जैन, और बौद्ध नष्ट कर दिया गया । यद्यपि अब भी हमको धर्म एक साथ शान्तिपूर्वक पाले जाते रहे हैं। इस बलाके पंजेसे छुट्टी नहीं मिली है-न्यूनामतविभिन्नता या विचारभिन्नताके कारण यहाँके धिक रूपमें उसका व्यक्त अव्यक्त प्रभाव हमारे लोग किसीसे द्वेष या वैर नहीं करते थे, बल्कि हृदयों पर अब भी बना हुआ है; तो भी सौआदरकी दृष्टिसे देखते थे। भाग्यवश हम नये ज्ञानके प्रकाशमें आ पड़े हैं यही कारण है जो यहाँ चार्वाक-दर्शनके प्रणेता - जिससे हमारी आँखें बहुत कुछ खुल गई हैं । । हम धीरे धीरे अपने पुराने मार्गपर आने लगे 'महर्षि के महत्त्वसूचक पदसे सत्कृत किये हैं, विचारभिन्नताका आदर करने लगे है गये हैं और वेदविरोधी भगवान् ऋषभदेव तथा और अपने पराये सभी धर्मोको उदार दृष्टिसे बुद्धदेव 'अवतार' माने गये हैं। देखने लगे हैं। पर हमारी यह अभिमानयोग्य परमतसहि- आज हिन्दीसाहित्यसम्मेलनके इस प्लेटष्णुता पिछले समयमें न रही और जबसे यह कम फार्म पर मुझे जो 'जैन लेखकों और कवियों होने लगी, तभीसे शायद भारतका अधःपतन द्वारा हिन्दी साहित्यकी सेवा' पर यह निबन्ध होना शुरू हो गया। लोग मतभिन्नताके कारण पढ़नेकी आज्ञा दी गई है सो मेरी समझमें एक दूसरेसे घृणा करने लगे और वह घृणा इसी प्रकाशका ही परिणाम है। मुझे आशा है कि इतनी बढ़ गई कि धीरे धीरे यहाँ परमतसहिष्णुता हमारी यह उदारता दिन पर दिन बढ़ती जायगी और विचारौदार्यकी हत्या ही हो गई । 'हस्तिना और कमसे कम हमारी साहित्यसम्बन्धी संस्थाओंसे पीड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्' जैसे वाक्य तो धार्मिक पक्षपात सर्वथा ही हट जायगा। उसी समय गढ़े गये और धार्मिक द्वेषके बीज बो प्रसंगवश ये थोड़ेसे शब्द कहकर अब मैं दिये गये। 'अपने विषयकी ओर अ * सप्तम हिन्दीसाहित्यसम्मेलन, जबलपुरमें पढ़े जानेके लिए जनहितैषी-सम्पादक द्वारा लिखित । दसरोंके विचारो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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