Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 14
________________ ५३२ 1 कुछ कथन किसी ऐसे ग्रंथसे भी उठाकर रक्खा - गया है जो हिन्दुओंके नारद मुनि या नारदाचार्य से सम्बंध रखता है । 'नारदस्य वचो यथा' और ' भद्रबाहुवचो यथा ' ये दोनों पद एक ही वजनके हैं | आश्चर्य नहीं कि इस अध्याय में जहाँ ' भद्रबाहुवचो यथा ' इस पदका प्रयोग पाया जाता है वह ' नारदस्य वचो यथा ' इस पदको बदल कर ही बनाया गया हो और ऊपर के पद्यमें 'नारदस्य' के स्थान में 'भद्रबाहु ' का परिवर्तन करना रह गया हो । परन्तु कुछ भी हो ऊपरके इस संपूर्ण कथनसे इस विषय में कोई संदेह नहीं रहता कि इस अध्यायका यह सब कथन, जो २२० पयोंमें है, एक या अनेक सामुद्रक शास्त्रों- लक्षणग्रंथों - अथवा तद्विषयक अध्यायोंसे उठाकर रक्खा गया है और कदापि भद्रबाहुश्रुत वलीका वचन नहीं है । जैनहितैषी - ( ६ ) भद्रबाहुसंहिता के पहले खंडमें दस अध्याय हैं, जिनके नाम हैं १ चतुर्वर्णनित्यक्रिया, २ क्षत्रियनित्यकर्म, ३ क्षत्रियधर्म, ४ कृतिसंग्रह, ५ सीमा निर्णय, ६ इंडपारुष्य, ७ स्तैन्यकर्म, ८ स्त्रीसंग्रहण, ९ दायभाग और १० प्रायश्चित्त । इन सब अध्यायों की अधिकांश रचना प्रायः मनु आदि स्मृतियों के आधार पर हुई है, जिनके सैंकड़ों या तो ज्योंके त्यों और या कुछ परिवर्तनके साथ जगह जगह पर इन अध्यायोंमें पाये जाते हैं । मनुके १८ व्यवहारों - विवादपदों का भी अध्याय नं० ३ से १ तक कथन किया गया है । परन्तु यह सब कथन पूरा और सिलसिलेवार नहीं है । इसके बीच में कृतिसंग्रह नामका चौथा अध्याय अपनी कुछ निराली ही छटा दिखला रहा है - उसका मजमून ही दूसरा है - और उसमें कई विवादोंके कथनका - दर्शन तक भी नहीं कराया गया । इन अध्या-यों पर यदि विस्तार के साथ विचार किया जाय Jain Education International तो एक खासा अलग लेख बन जाय; परन्तु यहाँ इसकी जरूरत न समझकर सिर्फ उदाहरणके तौरपर कुछ पयोंके नमूने दिखलाये जाते हैं:क-ज्योंके त्यों पद्य । त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्यां दंडनीतिं च शाश्वतीम् । आन्वीक्षिकीं चात्मविद्यां वार्तारंभांच लोकतः २-१३४ तैः सार्धं चिन्तयेन्नित्यं सामान्यं संधिविग्रहम् । स्थानं समुदयं गुप्तिं लब्धप्रशमनानि च ॥ १४५॥ ये दोनों पद्य मनुस्मृतिके सातवें अध्यायके हैं जहाँ वे क्रमशः नं० ४३ और ५६ पर दर्ज हैं । वाँ नोपगच्छेत्प्रमत्तोऽपि स्त्रियमार्तवदर्शने । समानशयने चैव न शयीत तया सह ॥ ४-४२ ॥ यह पद्य मनुस्मृतिके चौथे अध्यायका ४० है 1 कन्यैव कन्यां या कुर्यात्तस्याः स्याद्विशतो दमः । शुल्कं च द्विगुणं दद्याच्छिफाश्चैवाप्नुयाद्दश ॥ ८-१४ ॥ यह पद्य मनुस्मृतिके आठवें अध्यायमें नं० ३६९ पर दर्ज है। ख -- परिवर्तित पद्य । मनुस्मृतिके सातवें अध्यायमें राजधर्मका वर्णन करते हुए, राजाके काम से उत्पन्न होनेवाले दस व्यसनोंके जो नाम दिये हैं वे इस प्रकार हैं: मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियोमदः । तैयित्रिक वृथाय्या च कामजो दशको गणः ॥ ४७ ॥ भद्रबाहु संहिता में इस पथके स्थान में निम्न लिखित डेढ़ पद्य दिया है:परिवादो दिवास्वप्नः मृगयाक्षो वृथाटनम् । तौर्यत्रिकं स्त्रियो मद्यमसत्यं स्तैन्यमेव च ॥२-१३८॥ इमे दशगुणाः प्रोक्ताः कामजाः बुधनिन्दिताः । दोनों पद्योंके मीलानसे जाहिर है कि भद्रबाहुसंहिताका यह डेढ़ पद्य मनुस्मृतिके उक्त पद्य नं० ४७ परसे, उसके शब्दों को आगे पीछे For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org

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