Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 23
________________ २१३ इस प्रबन्धमें लजातत्त्वकी मीमांसा करना हमारा उद्देश्य नहीं है, इस लिए इन बातोंको जाने दीजिए । हमने अभी तक जो कुछ कहा है. उसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि मनुष्यकी सभ्यताको कृत्रिमकी सहायता लेनी ही पड़ती है। इस लिए इस ओर हमें सर्वदा ही दृष्टि रखनी चाहिए कि कहीं अभ्यासदोषसे यह 'कृत्रिम' हमारा स्वामी न बन बैठे और हम अपनी गढ़ी या तैयार की हुई सामग्रीकी अपेक्षा अपने । मस्तकको सर्वदा ही ऊँचा रख सकें । हमारे रुपये जब हमको ही खरीद बैठे, हमारी भाषा जब हमारे ही भावोंकी नाकमें नकेल डालकर उन्हें घुमा । मारे, हमारा साज-शृंगार जब हमारे अंगोंको ही अनावश्यक करनेके लिए जोर लगावे, और हमारे 'नित्य' जब 'नैमित्तिकों के सामने अप धियोंके समान कुंठित हो रहे तब इस सभ्यताके सत्यानाशी अंकुशको जरा भी न मानकर हमें यह बात कहनी ही होगी कि यह ठीक नहीं हो रहा है । भारतवासियोंका खुला शरीर जरा भी लज्जाका कारण नहीं है; जिन सभ्यजनोंके नेत्रोंमें यह खटकता है उनके नेत्र ही स्वच्छ नहीं हैं-उनमें विकार हो गया है । इस समय कपड़ों; जूतों और मोजोंका जैसा सम्बन्ध शरीरके साथ बढ़ गया है उसी तरह पुस्तकोंका सम्बन्ध हमारे मनके साथ बढ़ता जा रहा है । अब हम लोग इस बातको भूलते जा रहे हैं कि पुस्तक पढ़ना शिक्षाका केवल एक सुविधाजनक सहारा भर है और पुस्तक पढनेको ही शिक्षा या शिक्षाका एक मात्र उपाय समझने लगे हैं। इस विषयमें हमारे इस संस्कारको हटाना बहुत ही कठिन हो गया है। .. यह ठीक है कि आजकल शिक्षासम्बन्धी जो उल्टी गंगा बह रही है उसके कारणं हमें बचपनहीसे पुस्तकें रटना पड़ती हैं; परन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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