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दूसरे विषयोंको भी जाननेकी जरूरत रहती है। व्याकरणका मर्मज्ञ कोई तब तक नहीं हो सकता जब तक साहित्यका ज्ञान प्राप्त न कर ले। धर्मशास्त्रोंका मर्म तबतक नहीं समझा जा सकता जबतक मनुष्यमें इतिहास, विज्ञान, भूगोल, समाजशास्त्र, देशकाल आदिका ज्ञान न हो। काव्यका मर्मज्ञ वह हो सकता है, जो मानसशास्त्रका ज्ञाता हो, मनुष्यसमाजके भीतरी भावोंसे परिचित हो और प्रकृतिके मुक्तक्षेत्र में जो वर्षोंतक स्वच्छन्द विचरता रहा हो। इसलिए प्रत्येक विषयमें निष्णात करनेके लिए उस विषयके सहकारी विषयोंके साधारणज्ञानकी बहुत बड़ी आवश्यकता है । इसलिए जो ऊँचे दर्जेकी शिक्षासंस्थायें हैं उनमें मुख्य विषयोंके साथसाथ दूसरे अप्रधान विषयोंका भी साधारण ज्ञान करा देनेका प्रबन्ध रहता है। बालकोंकी प्रकृति भी, ऐसी ही होती है कि वे लगातार एक दो विषयोंको जी लगाकर नहीं पढ़ सकते हैं; घण्टे दो घण्टे पढ़नेके बाद एक विषयसे उनका जी ऊब उठता है। तब आवश्यक होता है कि उन्हें कोई दूसरा विषय पढ़ाया जाय और उसके बाद और कोई तीसरा । इस तरह विद्यार्थियोंकी योग्यताके अनुसार एक साथ कई विषय बहुत अच्छी तरहसे पढ़ाये भी सकते हैं। शिक्षाविज्ञानके ज्ञाता इस बातपर ध्यान रखकर कि विद्यार्थियोंके मस्तकपर अधिक बोझा न पड़ जाय-उन्हें अधिक परिश्रम न करना पड़े-प्रत्येक कक्षामें कई विषयोंके पढानेका प्रबन्ध कर सकते हैं।
६. संस्कृत पाठशालाओंके पठनक्रममें सबसे बड़ा विवाद इस बात पर उपस्थित होता है कि जैनग्रन्थ पढ़ाये जावें या जनेतर विद्वानों के बनाये हुए ग्रन्थ पढ़ाये जावें । इस विषयमें भी हम अपनी क्षुद्र सम्मति दे देना चाहते हैं । यह विवाद धर्मशास्त्रोंको लेकर नहीं होता;
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