Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 120
________________ है, तो कोई जरूरत नहीं कि दुरूह पाणिनीयके पढ़नेके लिए विद्यार्थी लाचार किये जावें और यदि डा० भाण्डारकरकी मार्गोपदेशिका अच्छी है तो क्या आवश्यकता है कि संस्कृतमें साधारण प्रवेश चाहनेवाले विद्यार्थी कातन्त्र या लघुकौमुदीके सूत्र घोंटा करें ? ___ जैन विद्वानोंने न्यायके ग्रन्थोंमें अगाध पाण्डित्य प्रदर्शित किया है। इस विषयके हमारे यहाँ सैकड़ों ग्रन्थ मौजूद हैं । अतः इस विषयमें अन्यान्य नैयायिकोंके ग्रन्थोंकी अपेक्षा करनेकी हमें जरूरत नहीं । तो भी इस विषयमें हमें इतने कट्टर न बन जाना चाहिए कि दूसरोंके ग्रन्थोंको पास भी न आने दें। यदि प्रारंभिक ज्ञान करनेवाले तर्कसंग्रह जैसे ऋमिक ग्रन्थ हमारे यहाँ न हों और ऐसा न्यायशास्त्रियों के मुँहसे सुना भी है, तो उन्हें भरती कर लेनेमें संकोच न करना चाहिए। इसके सिवा ऊँची कक्षाओंके विद्यार्थी यदि अन्यमतके न्यायग्रन्थ भी पढ़ना चाहें तो उनके पढ़ानेका प्रबन्ध कर देना बुरा नहीं है। विद्वानोंको सबहीके ग्रन्थ पढ़नेकी आवश्यकता है। काव्य नाटक अलङ्कारादिके ग्रन्थ भी हमारे यहाँ बहुत हैं; परन्तु हमारा यह विभाग न्यायादि विभागोंके समान पूर्ण नहीं है । यद्यपि हमारे कई काव्यग्रन्थ साहित्याकाशके चमकते हुए तारे हैं तो भी यदि हम चाहें कि अपने विद्यार्थियोंको कालिदास भवभूति आदिके ग्रन्थ बिलकुल ही न पढावें तो हमारी समझमें उनका साहित्य-ज्ञान बहुत अधूरा रह जायगा और यह उनपर एक प्रकारका अन्याय होगा । जब यह कोई धर्मका विषय नहीं है तब इसमें इतना अधिक कट्टर होनेकी ज़रूरत नहीं है। हमारे जो अच्छे अच्छे काव्य हैं उनको प्रसिद्धिमें लाना, उनको पाठ्यग्रन्थ बनाना, यह हमारा कर्तव्य है। क्योंकि फिलहाल उनका आश्रय देनेवाले हम ही हैं। परन्तु साथ ही हमें इस विषयका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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