Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 116
________________ ३०६ कक्षा में हिन्दीकी पढ़ाई आवश्यक कर दी जाय और अन्तिम कक्षा तक उसका इतना ज्ञान करा दिया जाय कि विद्यार्थी हिन्दीके अच्छे जानकार और लेखक बन जावें। यदि उचित समझा जाय तो प्रारंभकी कक्षाओंमें धर्मशास्त्र आदि एक दो विषय हिन्दीमें ही पढ़ाये जानेका प्रबन्ध किया जाय। ३. आजकलके जमानेमें केवल न्याय, व्याकरण, काव्य, और धर्मशास्त्रके ज्ञानसे काम नहीं चलसकता-केवल इन्हींके ज्ञाताओंकी विद्वानोंमें भी गणना नहीं हो सकती है। केवल इन्हीं विषयोंके जाननेवाले इस समय कार्यक्षेत्रमें अवतीर्ण नहीं हो सकते। शायद पूर्वकालमें भी इनके सिवा अन्यान्य विषयोंके जाननेकी जरूरत थी। श्रीसोमदेवसूरिने अपने नीतिवाक्यामृतमें कहा है कि “सा खलु विद्या विदुषां कामधेनुः, यतो भवति समस्तजगतः स्थितिपरिज्ञानम् । लोकव्यवहारज्ञो हि मूखोंऽपि सर्वज्ञः अन्यस्तु प्राज्ञोऽप्यवज्ञायत एव । ते खलु प्रज्ञापारमिताःपुरुषाः ये कुर्वन्ति परेषां प्रतिबोधनम् । अनुपयोगिना महतापि कि जलधिजलेन । " अर्थात् "जिससे सारे जगतकी स्थितियोंका ज्ञान होता है-दुनियाकी सारी बातोंकी जानकारी होती है, वह विद्या विद्वानोंके लिए कामधेनु या इच्छित फलोंकी देनेवाली है। वह मूर्ख या बिना पढ़ा लिखा भी सर्वज्ञ है जो लोकव्यवहारज्ञ है-दुनियाकी सारी व्यवहारोपयोगी बातोंको जानता है; परन्तु जो कोरा पण्डित है-उसे कोई नहीं पूँछता; उसकी सब जगह अवज्ञा होती है। जो दूसरोंको समझा सकता है-दूसरोंके अज्ञानको दूर करसकता है वही सच्चा बुद्धिमान् है किन्तु जिसकी विद्या निरुपयोगी है-किसीके काम नहीं आसकती है, वह किसी कामका नहीं। समुद्रके जलका कुछ पार नहीं, परन्तु जब वह किसीके पीनेके कामका नहीं तब उसका होना न होना बराबर है। " श्रीसो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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