Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 114
________________ तो हमारे लडके पढ़ते हैं। उसके स्कूलोंमें भी पहले भाषा और पीछे व्याकरण पढ़ानेकी पद्धति है । तब संस्कृत भी इसी पद्धति से क्यों न पढ़ाई जाय ? जिस समय बालकोंको संस्कृतका कुछ भी ज्ञान नहीं होता है उस. समय उन्हें शुष्क और क्लिष्ट व्याकरण सूत्रोंको रटना पड़ता है। इससे उनका एक तो समय बहुत जाता है, दूसरे उनका संस्कृतका ज्ञान परिपक्व नहीं होता और तीसरे इस अवस्थामें केवल स्मरण शक्तिका उपयोग होते रहनेसे उनकी कल्पनाशक्ति और विचारशक्ति क्षीण निकम्मी हो जाती है। आगे उनकी बुद्धिका विकास नहीं होने पाता है । हमारा अभिप्राय यह नहीं है कि व्याकरणका पढ़ाना ही बुरा है अथवा उसका स्वल्प ज्ञान ही यथेष्ट है । हम चाहते हैं कि संस्कृत भाषाके समझनेकी शक्ति हो जाने पर उसका व्याकरण पढ़ाया जाय और वह सम्पूर्ण पढ़ाया जाय । इस पद्धतिसे. बहुत कम परिश्रमसे व्याकरणका अच्छा ज्ञान हो सकता है । इसके सिवा प्रारंभमें जो व्याकरण ग्रन्थ पढ़ाया जाय वह नये ढङ्गका हो-पुराने सूत्रबद्ध व्याकरण शुरूमें न पढ़ाये जावें । इस ढंगके . व्याकरणसे एक तो परिश्रम बहुत कम पडता है, दूसरे वे विद्यार्थी जो कि वर्ष दो वर्ष ही पढ़कर विद्यालय छोड़ देते हैं उनको बहुत लाभ होता है। अभी ऐसे विद्यार्थियोंकी बड़ी दुर्दशा होती है। क्योकि पुराने व्याकरण इतने कठिन हैं कि वर्ष दो वर्षमें उनमें उनका प्रवेश ही नहीं होता है और इसलिए विद्यालय छोड़ देनेपर वे इतना ज्ञान भी. साथमें नहीं ले जाते कि उससे सरल संस्कृत ग्रन्थोंका भी स्वाध्याय कर सकें बेचारे रात दिन घोंट घोंट कर मगज खाली करते हैं पर अन्तमें कोरे रह जाते हैं । प्रो. विनयकुमार सरकार एम. ए. ने थोड़े दिन पहले संस्कृतशिक्षाविज्ञान नामका एक बहुत ही उत्तम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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