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ग्रंथ बनाया है। इसके पढ़नेसे बहुत जल्दी और बहुत थोड़े परिश्रमसे संस्कृतका ज्ञान हो जाता है। यही अथवा इसी ढंगकी दूसरी पुस्तकोंके पढ़ानेका विद्यालय में प्रबन्ध होना चाहिए ।
जहाँ तक हम जानते हैं इस विद्यालय में संस्कृतके विद्यार्थियोंको व्यवहारोपयोगी अँगरेजी शिक्षा देनेका तो प्रबन्ध किया ही जायगा और उसकी ज़रूरत भी है; पर साथ ही हमारी प्रार्थना गरीब हिन्दी के लिए भी है । इसकी ओर भी दयादृष्टि होनी चाहिए । हमारी समझमें इसके बिना न तो संस्कृतके विद्वान् देश, धर्म या समाजका कल्याण कर सकते हैं और न अँगरेज़ीके विद्वानोंसे ही हमें कुछ लाभ होता है । पर न इसकी गुजर अँगरेजी स्कूलों और कॉलेजोंमें है और न संस्कृतके विद्यालयोंमें ! अँगरेजीके विद्यालयोंमें तो वह इस कारण नहीं फटकने पाती कि उनका अधिकार विदेशी या विदेशी भावापन्न अफसरोंके हाथ में है, परन्तु संस्कृत के विद्यालय हमारे हाथ में हैं तो भी आश्चर्य है कि उनके दरवाजे इसके लिए बन्द हैं ? यह बड़े ही दुःखका विषय है। जैनियोंकी संस्कृत पाठशालाओंने इस समय तक जितने संस्कृतज्ञ तैयार किये हैं उनमें से एक दोको छोडकर कोई भी इस योग्य नहीं कि अपने विचारोंको लेखों ग्रंथों या व्याख्यानोंके द्वारा अच्छी हिन्दी में प्रकाशित कर सके। जो कुछ वे पढ़े हैं वह एक तरहसे उनके लिए 'गूँगेका गुड़ ' है । संस्कृत साहित्य में क्या महत्त्व है वे उसे दूसरोंके सम्मुख प्रकाशित नहीं करसकते और यदि करनेका प्रयत्न भी करते हैं तो उनकी संस्कृतबहुल विलक्षण ' पण्डिताऊ' भाषाको सर्व साधारण समझ नहीं सकते । तत्र बतलाइए, ऐसे पण्डितोंको तैयार करके जैनसमाज क्या लाभ उठायगा ? इस बड़ी भारी त्रुटिको पूर्ण करनेका इस विद्यालय में खास प्रयत्न होना चाहिए । प्रत्येक
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