________________
२९७
इन सबका बोझा यह कैसे संभालेगा ! वह घबड़ा गया और एकाएक बोल उठा-" यह तन्तु मेरा है, इसे तुम सब लोग छोड़ दो।" बस, इन शब्दोंके निकलते ही तन्तु टूट गया और कदन्त फिर नरकभूमिमें जा पड़ा !! __कदन्तका देहममत्व नहीं छूटा था-वह आपको ही अपना समझता था
और सत्यके वास्तविक मार्गका उसको ज्ञान न था। अन्तःकरणके कारण जो सिद्धि प्राप्त होती है उसकी शक्तिसे वह अज्ञात था । वह देखनेमें तो जालके तन्तुओं जैसी पतली होती है परन्तु इतनी दृढ होती है कि हज़ारों मनुष्योंका भार संभाल सकती है । इतना ही नहीं, उसमें एक विलक्षणता यह भी है कि वह ज्यों ज्यों मार्गपर अधिक चढ़ती है त्यों त्यों अपने आश्रित प्रत्येक प्राणीको अल्प परिश्रमकी कारण होती है; परन्तु ज्यों ही मनुष्यके मनमें यह विचार आता है कि वह केवल मेरी है-सत्यमार्गपर चलनेका फल केवल मुझे ही मिलना चाहिए-उसमें दूसरेका हिस्सा न होना चाहिए, त्यों ही वह अक्षय्य सुखका तन्तु टूट जाता है और मनुष्य तत्काल ही स्वार्थताके गढ़ेमें जा पड़ता है। स्वार्थता ही नरकवास है और निःस्वार्थता ही स्वर्गवास है। अपने देहमें जो 'अहंबुद्धि' या ममत्वभाव है, वही नरक है ।
श्रमणकी कथा समाप्त होते ही मरणोन्मुख लुटेरा बोला-महाराज, मैं मकरीके जालके तन्तुको पकढूँगा और अगाध नरकके गढ़ेमेसे अपनी ही शक्तिका प्रयोग करके बाहर निकलूंगा।
__ लुटेरा कुछ समयके लिए शान्त हो रहा और फिर अपने विचारोंको स्थिर करके बोलने लगा-" पूज्य महाराज, सुनो मैं आपके पास अपने पापोंका प्रायश्चित्त करता हूँ। मैं पहले कोशाम्बीके प्रसिद्ध
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org