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कल्याणके लिए है, वह समाज कभी उन्नत और सुखी नहीं हो सकता
और जो जो समाज अब तक ऊँचे चढ़े हैं वे सब ऐसे ही स्वार्थत्यागी महात्माओंकी कृपासे चढ़े हैं। इस लिए इसप्रकारके लोगोंकी परम्परा बढ़ानेकी बहुत आवश्यकता है। परन्तु यदि ऐसे लोग न हों, तो उनके स्थानमें अपूज्योंको पूज्योंके पद पर बिठा देना और उनके. चरणों पर अपनी स्वाधीनताको भी चढ़ा देना, इसे मैं बुद्धिमानीका कार्य नहीं समझता । इससे तो यही अच्छा है कि हम बिना साधुओंके ही रहें और इसी लिए मैंने तेरापंथियोंको भाग्यशाली बतलाया है । नीतिकारने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि ' वरं शून्या शाला न च खलु वरो दुष्टवृषभः ।' अर्थात् शाला सूनी पड़ी रहे सो अच्छा,. परन्तु उसमें दुष्ट बैलका रहना अच्छा नहीं।
बहुतसे लोगोंका खयाल है कि यह समय ही कुछ ऐसा निकृष्ट है कि इसमें उत्तम साधुओं और त्यागियोंके उत्पन्न होनेकी आशा नहीं; उत्कृष्ट साधुओंका आचार भी इस समय नहीं पल सकता। इस लिए उनके अभावमें निम्नश्रेणीके साधुओंकी भी पूजा करना बुरा नहीं । परन्तु मेरी समझमें यह विचार ठीक नहीं । आदर्श सदा ऊँचा ही रखना चाहिए--नीचे आदर्शको सामने रखकर कोई ऊँचा नहीं हो सकता, यह हमें सदा स्मरण रखना चाहिए । और इस समय उत्कष्ट साधुओंका आचार नहीं पल सकता है, इसका मतलब यह नहीं है कि आजकल क्षमा, दया आदि गुणोंके धारण करनेवाले, निस्पृह,. मन्दकषाय, सहनशील, दृढ़ ब्रह्मचारी, परोपकारी, विद्वान्, धर्मप्रचारक साधु भी नहीं हो सकते हैं। अनगारोंमें तो क्या सागार गृहस्थोंमें भी इस प्रकारके महात्मा हो सकते हैं और दूसरे समाजोंमें अब भी हैं । यदि इस समय प्रतिकूलता है तो वह यह कि साधुओंकी जो भोजनपानकी
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