Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 53
________________ २४३ काश नहीं। इसका कारण यदि अवकाशाभाव ही होता तो कुछ आक्षेपकी बात नहीं थी। पर यह एक बहाना भर है । वास्तवमें हममें अभी तक इस प्रकारके भाव ही उत्पन्न नहीं हुए हैं। बीचमें हमारी जो सर्वतोगामिनी सहानुभूति, दया, परार्थपरता नष्ट हो गई है-वह अभी तक जीवित ही नहीं हुई है । यदि हममें राष्ट्रीयभाव, प्रेम या देशभक्ति होती, तो भले ही हम प्रत्यक्षरूपसे सार्वजनिक सेवाके कार्य न कर सकते-अपने कामोंके मारे उनमें योग न दे सकते; परन्तु हमारे निजके ही कामोंमें वह जहाँ तहाँ प्रस्फुटित हुए बिना न रहती। और यह बात भी तो सर्वांशोंमें सत्य नहीं मालूम होती कि हमें अपने कामोंसे अवकाश नहीं है । ऐसे बहुतसे कार्य हैं जिन्हें हम अपने कार्य करते हुए भी सहज ही कर सकते हैं। और हमारे समाजके सभी लोग तो काम नहीं करते हैं-यदि कुछ लोग अपनी योग्यताके अनुसार सार्वजनिक काम भी करने लगें तो अच्छी तरहसे कर सकते हैं; होना चाहिए इन कामोंसे प्रेम और सहानुभूति । ___ अन्तमें हम अपने भाइयोंको सचेत कर देना चाहते हैं कि तुम्हारी संख्या औरोंकी अपेक्षा बहुत ही कम है, दार्शनिक सिद्धान्तोंके खयालसे तुम्हारा धर्म देशके सारे धर्मोसे अतिशय भिन्नता रखता हैं-यहाँ तक कि जब सारा देश ईश्वरवादी है तब तुम किसी एक ईश्वरके अस्तित्वको ही स्वीकार नहीं करते। ऐसी अवस्थामें अपने अस्तित्वकी रक्षाका प्रश्न तुम्हारे सम्मुख सबसे अधिक कठिन है। इसका तुम्हें बहुत ही सावधानीसे विचार करना चाहिए। हमारी समझमें जबतक हम देशके प्रत्येक कार्यमें शामिल न होंगे, दूसरोंके समान अपनी भी शक्तियोंको बढ़ाकर देशके कार्यभारमें बराबरीसे अपने कन्धे न लगावेंगे, प्रत्येक देशवासीके सुखमें सुखी, दुखमें दुखी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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