Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 87
________________ २७७ ही तैयार होते हैं और न अच्छे विचारोंका विस्तार तथा ज्ञानकी अभिरुचि बढ़ती है । . वर्तमान समयमें समाचारपत्र और मासिकपत्र उन्नतिके सबसे बड़े साधन हैं। इस बातको सब ही स्वीकार करते हैं । इस लिए इनकी दशा सुधारना मानो अपनी ही दशा सुधारना है। हमारी कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि यदि हम इस बातको समयपर छोड़ दें-यह सोच लें कि धीरे धीरे ग्राहकसंख्या बढ़ेगी और उससे पत्रोंकी दशा अच्छी हो जायगी, तो ठीक न होगा । ग्राहकसंख्या थोड़ी बहुत अवश्य बढती रहेगी, परन्तु वह इतनी नहीं बढ़ सकती जितनी कि दूसरोंके पत्रोंकी बढ़ सकती है। क्योंकि एक तो हमारी संख्या बहुत ही थोड़ी है और फिर उसमें भी कई सम्प्रदाय कई पंथ "और कई भाषायें हैं। ऐसी अवस्थामें जबतक कोई खास प्रयत्न न किया जाय, तबतक हमारे पत्रोंकी दशा अच्छी नहीं हो सकती। या तो धनिक इन पत्रोंको इतनी सहायता दे देवें जिससे केवल प्राहकोंके भरोसेपर इन्हें न रहना पडे या धनिकोंकी संस्थाओंके ओरसे ही दो चार अच्छे पत्र निकाले जावें जिन्हें धनकी विशेष चिन्ता न रहे। यदि धनिकोंका लक्ष्य इस ओर न हो अथवा उनकी अधीनतामें विचारस्वाधी- नताके नष्ट होनेकी संभावना हो, तो शिक्षित और मध्यम श्रेणीके लोगोंको ही इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे लोग यदि प्रतिवर्ष दो दो चार चार रुपया ही पत्रोंकी सहायताके लिए दे दिया करें अथवा दश दश पाँच पाँच ग्राहक ही बना दिया करें तो पत्रोंकी स्थिति बहुत कुछ सुधर सकती है । इसके सिवा यदि सम्पादक लोक साम्प्रदायिक झगडोंमें विशेषतासे न पड़ें और लोगोंमें विचारसहिष्णुता बढ़ाई जावे, तो भी ग्राहकसंख्या बढ़ सकती है । क्योंकि ऐसा होनेसे प्रत्येक जैनपत्रको तीनों सम्प्रदायके लोग पढ़ सकेंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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