Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 104
________________ उपाय बतलाइए जिससे इन पापोंका बोझा हलका हो जाय । इस . बोझेसे मैं इतना दब गया हूँ कि अब मुझसे श्वास लेते भी नहीं बनता है। श्रमण-भाई, उपाय तो बहुत ही सुगम है । अपनी पाप प्रवृत्तियोंको जड़मूलसे उखाड़कर फेंक दे, बुरी बासनाओंको छोड़ दे, प्राणी मात्रपर दया करनेका अभ्यास कर और अपने जाति भाइयोंके लिए . अपने हृदयको दयाका सरोवर बना दे।। - इसके बाद श्रमण लुटेरेके घावोंको जलसे धोने लगा और उनपर एक प्रकारकी हरी पत्तियोंके रसको लगाने लगा । लुटेरा कुछ समयके लिए शान्त हो गया और फिर बोला-हे दयामय, मैंने अबतक सब बुरे ही काम किये हैं, किसीका भला तो कभी किया ही नहीं, अपनी बुरी वासनाओंके जालमें मैं आप ही आप फँसा और ऐसा फँसा कि अब उसमेंसे निकलना कठिन हो गया है। मेरे कर्म मुझे नरकमें ले जा रहे हैं। मुझे आशा नहीं कि इनके मारे मैं मोक्षमार्ग पर चल सकूँ। श्रमण-इसमें सन्देह नहीं कि जो बोया है उसे तुम्हें ही लुनना पडेगा । किये हुए कर्मोंका परिणाम अवश्य भोगना पडता है; उससे बचनेका कोई उपाय नहीं । तो भी साहस न छोड़ बैठना चाहिए। तुम्हारे हृदयमेंसे दुष्टताकी मात्रा ज्यों ज्यों कम होती जायगी त्यों त्यों शरीरसम्बन्धी आत्मबुद्धि भी कम होती जायगी और इसका फल यह होगा कि तुम्हारी विषयोंकी लालसा नष्ट होने लगेगी। __ अच्छा सुनो, मैं तुम्हे एक बोधप्रद कथा सुनाता हूँ। इससे तुम्हें मालूम होगा कि अपनी भलाईमें दूसरोंकी और दूसरोंकी भलाईमें अपनी भलाई समाई हुई है। दूसरे शब्दोंमें, मनुष्यके कर्म उसके और दूसरोंके सुखरूप वृक्षके मूल हैं: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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