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पाण्डुको श्रमण नारदसे मिलनेकी प्रबल उत्कंठा हुई । वह तत्काल ही उठा और बौद्धविहार या बौद्ध साधुओंके मठका पता लगाता हुआ उक्त श्रमण महात्मासे जा मिला ।
कुशलप्रश्न हो चुकनेके बाद श्रमण नारदने कहा - " सेठजी, आपकी अभी इतनी शक्ति नहीं है कि कर्मरचनाको अच्छी तरहसे समझ सकें । यह बड़ा ही गहन और गंभीर विषय है । साधारण लोग . इसका मर्म नहीं जान सकते। आगे जब आपकी इस ओर रुचि होगी और उससे जब उत्कण्ठा बढ़ेगी तब इसे आप सहज ही समझ लेंगे तो भी इस समय आप मेरी यह छोटीसी बात ध्यान में रख लें कि जिस समय आप दूसरोंको दुःख देनेके लिए तैयार हों उस समय अपने हृदयसे यह अवश्य पूँछ लें कि ऐसा ही दुःख यदि कोई मुझे भी दे, तो मुझे वह अच्छा लगेगा या नहीं ? यदि इस प्रश्नका उत्तर यह मिले कि, नहीं मैं ऐसा दुःख कदापि सहन न कर सकूँगा, तो दुःख देनेकी इच्छा होने पर भी आप उसे दबा दें । और जिस तरह कोई आपकी सेवा करता है तो वह आपको अच्छी लगती है उसी तरह आपकी सेवा भी दूसरोंके लिए रुचिकर होगी, यह विश्वास करके आप दूसरोंकी सेवा करने के अवसरको कभी हाथसे न जानें दें। इस बात पर विश्वास रखिए कि हम आज जो सुकृतके बीज बोयेंगे, कालान्तर में उनसे अच्छे फल अवश्य ही मिलेंगे ।
पाण्डु - महाराज, मुझे कुछ और भी विस्तार से समझानेकी कृपा कीजिए जिससे मैं आपके उपदेशके अनुसार वर्ताव करने के लिए समर्थ हो सकूँ ।
श्रमण - अच्छा तो सुनो मैं आपको. कर्मभेदकी चाबी देता हूँ । मेरे और तुम्हारे बीच में एक परदा पड़ा हुआ है । उसे माया कहते हैं
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