Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 95
________________ २५ करनेका दिन कल है । मुझे कल सबेरे चावल देना ही चाहिए। परन्तु क्या करूँ चावलका मेरे पास एक दाना भी नहीं-किसी और जगहसे भी मिलनेकी आशा नहीं । क्योंकि यहाँ मेरा प्रतिपक्षी एक जबर्दस्त व्यापारी है । उसको किसी तरहसे यह मालूम हो गया है कि मैंने राजाके कोठारीके साथ इस तरहका बायदेका व्यापार किया है। इससे उसने यहाँ सारी बस्तीमें जितना चावल था वह सबका सब मुँहमागा दाम देकर खरीद लिया है। कोठारीको उसने कुछ न कुछ घूस(रिश्वत) भी ज़रूर दी होगी, इस लिए कल मेरी कुशल नहीं-मेरी इजत नहीं बच सकती । यदि विधाता ही मेरी सहायता करे और कहींसे एक गाड़ी अच्छे चावल मेरे पास पहुँचा दे, तो शायद मैं बच जाऊँ, नहीं तो मेरा मरना हो जायगा । मलिक यह कह ही रहा था कि इतनेमें पाण्डुको अपनी मुहरोंकी बसनीकी याद आई । वह घबड़ाकर उठा और उसकी खोज करने लगा । सन्दूकमें, गाडीमें, कपड़े लत्तोंमें उसने बहुत ढूँढ खोज की परन्तु बसनीका पता न लगा। उसे सन्देह हुआ कि मेरे नौकर महादत्तने ही बसनी उड़ा ली है। बस फिर क्या था, उसने महादत्तको पुलिसके हवाले कर दिया । यमदूतके समान पुलिसने चोरी स्वीकार करानेके लिए · महादत्तको मार मारना शुरू की । असह्य मारके पड़नेसे वह बिलबिला उठा और रोता हुआ कहने लगा-मैं निरपराधी हूँ, मैंने बसनी नहीं चुराई। मुझे माफ़ करो, मुझसे यह मार नहीं सही जाती । हाय ! हाय ! मैं मरा, गरीब पर दया करो । मैंने बसनी नहीं ली है; परन्तु मेरे किसी पूर्व पापका उदय हुआ है जिससे मुझपर यह विपत्ति आई है। मैंने अपने सेठके कहनेसे उस बेचारे किसानको रास्तेमें हैरान किया था, अवश्य ही मुझे यह उसी पापका फल मिल रहा है। भाई किसान, मैने तुझे बिनाकारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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