Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 101
________________ २९१ जीवमात्रपर दया करनेकी भावना दृढ होने लगी। उसका हृदय पूर्व कौके पश्चात्तापसे दिनपर दिन पवित्र और उज्ज्वल झेने लगा। पाण्डुको अपनी निर्धनताका जरा भी दुःख नहीं होता । यदि उसे कोई बड़ा भारी दुःख है तो वह यही कि अब वह लोगोंकी भलाई करनेमें और श्रमणोंको बुलाकर उनके द्वारा धर्मप्रचार करनेमें असमर्थ हो गया है। ____कोशाम्बी नगरीके पासके उसी जङ्गलमें जहाँ पाण्डु लूटा गया था एक बौद्ध साधु जा रहा है। वह अपने विचारोंमें मस्त है। उसके पास एक कमण्डलु और एक गठरीके सिवा और कुछ नहीं है। गठरीमें बहुतसी हस्तलिखित पुस्तकें हैं । जिस कपड़ेमें वे पुस्तके बँधी हैं वह कीमती है। जान पड़ता है किसी श्रद्धालु उपासकने पुस्तक-विनयसे प्रेरित होकर उक्त कपड़ा दिया होगा। यह कीमती कपड़ा साधुके लिए विपत्तिका कारण बन गया। लुटेरोंने उसे दूरहीसे देखकर साधुपर आक्रमण किया। उन्होंने समझा था कि गठरीके भीतर कीमती चीजें होंगी परन्तु जब देखा कि वे उनके लिए सर्वथा निरुपयोगी पुस्तकें हैं, तब वे निराश होकर चल दिये। जाते समय अपने स्वभावके अनुसार साधुको नीचे डालकर एक एक दो दो लातें मारे बिना उनसे न रहा गया। - साधु मारकी वेदनाके मारे रातभर वहीं पड़ा रहा । दूसरे दिन सबेरे उठकर जब वह अपनी राह चलने लगा, तब उसे पासहीकी झाडीमेसे हथियारोंकी झनझनाहट और मनुष्योंकी चीख चिलाहट सुनाई दी। उसने साहस करके झाडीके समीप जाकर देखा तो मालूम हुआ कि वे ही लुटेरे जिन्होंने उसकी दुर्दशा की थी अपने ही दलके एक लुटेरेपर आक्रमण कर रहे हैं। यह लुटेरा डीलडौलमें इन सबसे बलवान् और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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