Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 43
________________ २३३ श्वेताम्बर सम्प्रदायके कुछ साधुओंके विषयमें मेरे अभिप्राय बहुत , ऊँचे थे मैं उन्हें बहुत ही श्रद्धाकी दृष्टिसे देखता था; परन्तु दो तीन वर्षसे श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो एक तुमुल संग्राम मच रहा है और जिसका नेतृत्व इन साधु महाराजाओंके ही हाथमें है--उसका भीतरी हाल सुनकर मेरे हृदयपर बड़ी गहरी चोट लगी है और इसी लिए मेरा यह विचार बना है कि तेरापंथी लोग इस विषयमें बड़े ही भाग्यशाली हैं। पं० लालन और शिवजी भाईके सम्बन्धको लेकर इन महात्माओंके जो लेख निकले थे और अभी हालमें अहमदाबादके एडवोकेट और भावनगरके जैन शासनमें जो कषायविषसे बुझे हुए वाग्बाणोंकी वर्षा हो रही है उन्हें पढ़कर हृदयमें बड़ी ही ग्लानि उत्पन्न होती है। क्या ये ही हमारे मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ-भावनाओंका चिन्तवन करनेवाले, समिति और गुप्तियोंके पालन करनेवाले, सांसारिक भोगों और मान बड़ाईकी इच्छा न रखनेवाले मुनिराज हैं, जिनके घृणित चरित्र सुनकर कानोंमें उँगली देनी पड़ती हैं, कटु और निन्द्यवचन सुनकर लज्जासे नीचा सिर कर लेना पड़ता है और एक दूसरेको नीचा दिखानेकी कोशिशमें लगे देखकर दयासे द्रवित होना पड़ता है। एक महाशय लोभी पण्डितोंसे ऊँची पदवी प्राप्त करनेकी कोशिश कर रहे हैं। दूसरे यद्यपि स्वयं इसी युक्तिसे पदवी लेकर जगद्गुरु बन बैठे हैं परन्तु पहलेकी कोशिशका भंडा फोड़ कर रहे हैं । तीसरे अपनी कीर्तिका शङ्खरव करनेके लिए शिष्योंद्वारा तरह तरहके प्रयत्न कर रहे हैं । चोथे गौराङ्गों द्वारा अपना गुणगान कराके आसमानपर चढ जा रहे हैं । पाँचवें एक स्वाधीन विचारके सम्पादकको जेलकी हवा खिलानेके शुक्ल ध्यानमें मस्त हैं। छठे अपने विरुद्धमें कुछ कहनेवालोंपर कलम--कुठार चला रहे हैं और साथ ही नरकमें जानेकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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