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साधु ऊर्फ भिखमंगों की गति नहीं है - इस श्रेणीके साधुओंका भार उनके सिरपर नहीं है । अभी तक जैनधर्मके 'साधु' नामकी बहुत कुछ प्रतिष्ठा बनी हुई है ।
किन्तु जैनधर्मके साधुओंका जो अतिशय उच्च आदर्श है, उससे तो हमारे वर्तमान साधु भी कुछ कम पतित नहीं हुए हैं - इस खयाल से तो उन्हें औरोंसे भी अधिक गिरा हुआ कहना पड़ता है। जैनसि। द्धान्तके अनुसार साधु, मुनि या यति वह कहला सकता है जिसने सांसारिक विषयवासनाओंसे सर्वथा मुँह मोड़ लिया है, किसी भी प्रकारका परिग्रह जिसके पास नहीं है, संसारके कोलाहल से ऊब कर जो निर्जन स्थानोंमें रहकर मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों को • बढ़ाता है, संसार के लोगों से जिसका केवल इतना ही सम्बन्ध है कि उनके कल्याणकी वह इच्छा रखता है और अवसर मिलने पर उन्हें धर्मामृतका पान कराता है, सारी इन्द्रियाँ जिसकी दासी हैं, धनमान प्रतिष्ठाको जो तुच्छ समझता है, बुराई करनेवालोंका भी जो कल्याण चाहता है, करुणा और क्षमाका जो अवतार है, किसी भी धर्म, मत या सम्प्रदायसे जिसे द्वेप नहीं, जो सत्यका परम उपासक है, हठ या आग्रह जिसके पास नहीं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी एकतासे जो मोक्ष मार्ग मानता है । देखिए, यह कितना ऊँचा आदर्श है और फिर अपने साधु महात्माओंकी ओर भी एक नजर डालिए कि वे इस आदर्शसे कितने नीचे गिरे हुए हैं ।
पहले भट्टारकोंको ही लीजिए | उनके पास लाखों की दौलत है, गाड़ी, घोड़ा, पालकी, नोकर, चाकर, आदि राजसी ठाटबाट हैं, जो भोगोपभोगकी सामग्रियाँ गृहस्थोंको भी दुर्लभ हैं वे उनके सामने हर वक्त उपस्थित हैं । दयामया इतनी है कि श्रावकों के द्वारपर धरना
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