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अर्थ अब भिखमंगा हो गया है और इस समय दरिद्र भारतवासियोंके सिरपर इस प्रकारके १२ लाख साधुओंके पालनपोषणका असह्य भार पड रहा है। . हाय ! जिन साधुओं और स्वार्थत्यागियोंकी कृपासे भारतवर्ष सदाचारकी मूर्ति, नीतिमत्ताका उदाहरण, विद्याका भण्डार, धार्मिक भावोंका आदर्श, धनी, मानी, वीर और जगद्गुरु समझा जाता था, उन्हींके भारसे अब यह इतना पीडित है कि देखकर दया आती है। इनेगिने थोडेसे महात्माओंको छोडकर जितने साधु नामधारी हैं वे सब इसकी जर्जर देहको और भी जर्जरित कर रहे हैं। कोई हमें धर्मका भयंकर रूप दिखलाकर जडकाष्ठवत् बनकर पड़े रहनेका उपदेश रहा है, कोई अंधश्रद्धाके गहरे गढ़ेमें ढकेल रहा है, कोई कुसंस्कारोंकी पट्टीसे हमारी आँखें बन्द कर रहा है, कोई आपको ईश्वरका अवतार बतलाकर हमसे अपना सर्वस्व अर्पण करा रहा है, कोई तरह तरहके ढोंगोंसे अपनी दैवीशक्तियोंका परिचय देता हुआ हमारा धन लूट रहा है, कोई व्यर्थ कार्योंमें हमारे करोडों रुपया बरबाद करा रहा है, कोई मुहस्थोंको धर्मशास्त्रोंके पढ़नेके अधिकारसे वंचित कर रहा है, कोई अपनी प्रतिष्ठाके लिए हमारे समाजोंको कलहक्षेत्र बना रहा है, कोई गाँजा, भाँग, तमाखूको योगका साधक बतला रहा है और कोई अपने. पतित चरित्रसे दूसरोंको पतित करनेका मार्ग साफ़ कर रहा है। शिक्षित समाजका अधिकांश तो इनकी चुंगलमें नहीं फँसता है परन्तु हमारे अशिक्षित भाइयोंको तो ये रसातलमें पहुँचा रहे हैं। ऐसी दशामें मैं सोचता हूँ कि यदि तेरापंथी लोग गुरुरहित हैं, तो इसको उनके बड़े भारी पुण्यका ही उदय समझना चाहिए।
इस विषयमें तो तेरापंथी ही क्यों एक तरहसे समग्र जैन धर्मानुयायी ही भाग्यशाली हैं कि उनके यहाँ उक्त ५२ लाखकी श्रेणीवाले
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