Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 39
________________ लक ऐलकोंसे, कई गुसाईयोंसे, और कई वैष्णव, रामानुजी आदि साधुओंसे मिलनेका तथा परिचय प्राप्त करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। विचार सदा एकसे नहीं रहते, उनमें कुछ न कुछ परिवर्तन निरन्तर ही हुआ करता है । इस लिए यह नहीं कहा जा सकता कि मैं अपने वर्तमान विचारोंपर आगे भी स्थिर रहूँगा; परन्तु इस समय उक्त सब साधुओंको देखकर मेरे जो विचार बने हैं उनका प्रकट कर देना मैं आवश्यक समझता हूँ और उनसे कमसे कम उन लोगोंको लाभ पहुँचनेकी आशा करता हूँ जो कि मेरे ही जैसे अपरिणतबुद्धि हैं। | पाठक, अब मुझे गुरुओंकी उतनी अधिक आवश्यकता नहीं मालूम होती जितनी कि पहले मालूम होती थी। मुझे इस बातसे अब दुःख नहीं होता बल्कि प्रसन्नता होती है कि हमारे यहाँ गुरु नहीं है। दिगम्बर सम्प्रदायके एक बड़े भारी हिस्सेका मैं यह बड़ा भारी सौभाग्य समझता हूँ कि वह गुरुओंके दुःशासनकी पीडासे द्रोपदीके समान दुःख और लज्जासे म्रियमाण होनेके लिए लाचार नहीं हुआ है। क्यों कि इस समय इनके नाम बड़े और दर्शन छोटे हैं । साधु, मुनि, यति, भट्टारक, महात्मा आदि नामोंको ये बदनाम कर रहे हैं । यह इन्हीं महात्माओंके चरित्रोंका प्रभाव है जो विदेशी लोग हमारे भारतके धर्मोको घोर कुसंस्काराच्छन्न और गिरा हुआ समझते हैं और उनपर तरह तरहकी वाग्वाणवर्षा किया करते हैं । वे समझते हैं कि वर्तमान साधु सन्यासी ही भारत धर्मोके प्रतिपादित साधु हैं। यहाँके धर्मों में साधुओंके चरित्रकी परिभाषा यही है। | भारतका साधुसम्प्रदाय नीचताकी चरम सीमापर आपहुँचा है। इससे अधिक इसकी और क्या दुर्दशा होगी कि आज यहाँके जितने भिखमँगे हैं वे प्रायः अपनेको साधु ही बतलाते हैं ! अर्थात् साधुका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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