Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 24
________________ वास्तवमें पुस्तकोंमेंसे ज्ञानसञ्चय करना हमारे मनका स्वाभाविक धर्म नहीं है। पदार्थको प्रत्यक्ष देख सुनकर, हिला डुलाकर, परीक्षा करके ही वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और यही हमारे स्वभावका विधान है। दूसरोंका जाना हुआ या परीक्षा किया हुआ ज्ञान भी यदि हम उनके मुँहसे सुनते हैं (न कि पुस्तकोंमेंसे पढ़ते हैं) तो हमारा मन उसे सहज ही स्वीकार कर लेता है । क्योंकि मुँहकी बात केवल 'बात' ही नहीं है, वह 'मुँहकी बात' है। उसके साथ प्राण है; मुख और नेत्रोंकी भाक भंगी है, कण्ठका तीव्र मन्द स्वर है और हाथोंके इशारे हैं । इन सबके द्वारा जो भाषा कानोंसे सुनी जाती है वह सङ्गीत और आकारमें परिणत होकर नेत्र और कान दोनोंकी ज्ञेय या ग्रहणसामग्री बन जाती है। केवल यही नहीं, यदि हमको मालूम हो जाय कि कोई मनुष्य अपने मनकी सामग्री हमें प्रसन्न और ताजा मनसे दे रहा है-वह सिर्फ एक पुस्तक ही नहीं पढ़ता जा रहा है, तो मनके साथ मनका एक प्रकारसे प्रत्यक्ष मिलन हो जाता है और इससे ज्ञानके बीच रसका संचार होने लगता है। किन्तु दुर्भाग्यवश, हमारे मास्टर पुस्तक पढनके केवल एक उप'लक्ष्य हैं और हम पुस्तक पढ़नेके केवल एक उपसर्ग । अर्थात् हम जो पुस्तकें पढ़ते हैं उनमें मास्टर केवल थोडीसी सहायता देते हैं और पुस्तक पढ़नेमें हमारा अन्तःकरण केवल उतना ही काम करता है जितना उपसर्ग किसी शब्दके साथ मिलकर। इसका फल यह हुआ है कि जिस तरह हमारा शरीर कृत्रिम पदार्थोंकी ओटमें पड़कर पृथ्वी के साक्षात् संयोगसे वंचित हो बैठा है, और वंचित होकर इतना अभ्यस्त हो गया है कि उस संयोगको हम आज क्लेशकर और लजाकर समझने लगे हैं, उसी तरह हमारा मन, जगतके साथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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