Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 35
________________ १४. जैनहितेच्छु अंक १, २-प्रकाशक, शकराभाई मोतीलाल शाह, सारंगपुर, अहमदाबाद । यह गुजराती भाषाका मासिक पत्र है। हिन्दीके भी एक दो लेख इसमें रहते हैं। नये वषेर्स इसकी पृष्ठसंख्या लगभग दूनी कर दी गई है । मूल्य मय उपहारकी पुस्तकके दो रुपया वार्षिक है। इसके मुख्य लेखक श्रीयुत वाडीलालजी बड़े ही उदार और मार्मिक लेखक हैं । इस अंकके प्रत्येक पृष्ठसे उनकी - उदारता, समदृष्टिता और मार्मिकता प्रगट होती है। जैनधर्मके तीनों सम्प्रदायोंकी भलाई, उन्नति और प्रगतिका इसमें संदेशा है। इसका 'जूनुं अने नवु' नामका पहला लेख बड़ा ही हृदयद्रावक है। प्रासंगिक नोट बड़ी ही निष्पक्ष दृष्टिसे लिखे गये हैं। इसके 'जैन बनवा थी उभी थती मुश्केलीओ' शीर्षक लेखका अनुवाद हम पिछले अंकमें प्रकाशित कर चुके हैं । जो सज्जन गुजराती समझ सकते हैं उन्हें इस पत्रके अवश्य ही ग्राहक. होना चाहिए। क्या ही अच्छा हो, यदि इस पत्रका एक हिन्दी संस्करण भी निकलने लगे। १५. जैनांतील पोटजाति-दक्षिण महाराष्ट्र जैनसभाकी ओरसे एक ट्रेक्ट-माला प्रकाशित होती है । उसका यह ५ वाँ ट्रेक्ट है। इसके लेखक हैं प्रसिद्ध जैनकवि दत्तात्रय भीमाजी रणदिवे । इसमें सुधारक और रूढिभक्त ऐसे दो जैन बन्धुओंका मराठी पद्यरूपमें वार्तालाप है और उसमें यह सिद्ध करनेकी चेष्टा की गई है कि जैनोंमें सैकड़ों अन्तर्जातियाँ हैं और उनमें पारस्परिक सेटीबेटी-व्यवहार नहीं होता है। इससे जैनसमाजकी बहुत हानि हो रही है । यह भेद एकता, समता, पारस्परिक सहानुभूति, परदुःखकातरता, वात्सल्य आदि गुणोंका घातक है। इससे व्यर्थ अभिमान, घृणा, द्वेष आदि दुर्गुणोंकी सृष्टि होती है। यह भेदभाव पहले नहीं था। Jain Educatiog International For Personal &Private Use Only. www.jainelibrary.org

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