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प्राचीन ग्रन्थोंमें इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता । पिछले अशान्तिप्रद
और कष्टकर समयमें इसकी उत्पत्ति हुई है। इत्यादि । रचना प्रभावशालिनी है । जोशमें आकर कवि महाशय कहीं कहीं बहुत आगे बढ़ गये हैं । इस तरहके समाजसुधार सम्बन्धी ट्रेक्टोंकी हिन्दीमें भी बहुत ज़रूरत है।
नीचे लिखी पुस्तकें भी प्राप्त हो चुकी हैं:
१ माधवी और २ श्रीदेवी-लेखक, रूपकिशोर जैन । प्रकाशक, फ्रेंड एंड कम्पनी, मथुरा । ३ विद्योन्नति संवाद और ४ पद्यकुसुमावली (मराठी)-प्रकाशक, हीराचन्द मलूकचन्द काका, शोलापुर। ५ प्रार्थनाविधि-प्रकाशक, कविराज पं० केशवदेवशास्त्री, काशी। ६ हस्तिनापुर तीर्थकी रिपोर्ट । ७ चतुर्विध दानशाला शोलापुरकी रिपोर्ट । ८ जैन पाठशाला मुडवाराकी रिपोर्ट । ९ अभिनन्दन पाठशाला ललितपुरकी रिपोर्ट । १० श्रीसामायिक सूत्र ।
तेरापंथियोंका सौभाग्य और गुरुओंकी दुर्दशा।
पाठक महाशय, मैं दिगम्बर जैनधर्मका अनुयायी हूँ और आम्नाय मेरी तेरापंथी है। आप जानते हैं कि तेरापंथियोंमें इस समय गुरुपरम्परा नहीं है। महावीर भगवानने जिस प्रकारके साधुओं या गुरुओं: को पूज्य बतलाया है उस प्रकारके गुरु इस कालमें नहीं हैं, इस कारण तेरापंथी किसीको अपना गुरु नहीं मानते। जिस समय मेरे विचार बहुत ही अपरिपक्व थे, उस समय मैं यह जानकर बहुत ही दुखी होता था कि हम लोगोंमें गुरुओंका अभाव है और इस कारण हमसे लोग 'निगुरिया' कहते हैं। मैं समझता था कि हमारा धर्म बहुत ही श्रेष्ठ
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