Book Title: Jain Bhajan Mala
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 11
________________ ए॥ भ० ॥ ३॥ घणी मोठी चक्री नी खौर-ए, वलि खोर समुद्र नो नौर ए। एह थौ. तुम वच अधिक विमास ए ॥ भ० ॥ ४ ॥ सांभल ने जन वृन्द ए, रोम रोम में पासें थानन्द ए। ज्यारी मिटै नरकादिक बास ए ॥ भ० ॥ ५ ॥ तूं प्रभु. दीन दयाल ए, लूँही अशरमा शरण निहाल ए। इधं तुसारो दास ए॥ म०॥ ६ ॥ सबत उगगौसे सोय ए, भाद्रवा सुदि तेरस जोय ए। पहंची मन नी आश ए ॥ स० ॥ ७॥ श्री चन्द्र प्रभु जिन स्तवन । (शिवपुर नगर सुहामणो एदेशी) __ हो प्रभु चन्द जिनेश्वर चन्द जिस्या, बागी शीतल चन्द सी न्हाल हो । प्रभु उपशम रस जन सांसलै, मिटै कर्म भ्रस मोह जाल हो ॥ प्रभु ॥१॥ए अांकड़ो। हो प्रभु, सूरत मुद्रा सोहनी, बारु रूप अनप विशाल हो। प्रम इन्द्र शचि जिन निरखतौ, ते तो स्वतन होवे निहाल हो ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ अहो वीतराग प्रभु तं सही, तुम ध्यान ध्यावे चित्त रोक हो। प्रभु तुम तुल्य ते हुवे ध्यान स्यू , मन पाया परम सन्तोष हो ॥ प्रभु ॥३.१ हो प्रभु लौन पगो तुम ध्यावियां, मामै इन्द्रादिक नौ ऋद्धि हो। वले विविध भोग सुख सम्पदा, लहे आमो सही आदि लब्धि हो ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ . हो

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