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THE FREE INDOLOGICAL
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॥श्री चौबीस जिन स्तुति प्रारम्भः॥
॥दोहा॥.... ॐ नमः अरिहन्त अतनु, आचार्य उवझाय। . स्मुनि पञ्च परमेष्टि ए, ॐकार रै मांहि ॥ १ ॥ ..... बलि प्रगामुगुणवन्त गुरु, भिक्ष भरत महार। . दान दया न्याय, छागाने, लौधो सारग सार ॥ २॥ भारीमाल पट भलकता, तोजे पट ऋषिराय। प्रणमु मन वच काय करी, पांचु अङ्ग नमाय ॥ ३ ॥ इम सिद्ध साधु प्रणमी करी, ऋषभादिक चौवोस । स्तवन करूं प्रमोद कगे, जय जश कर जगदीश ॥४॥ मल्लि नेम ए दोय जिन, प्राणौ ग्रहण न कोध। . शेष बावीस जिनेश्वर, रमण छांड़ ब्रत लौध ॥ ५ ॥ बासुपूज्य मल्लिनेम जिन, पारस अने वर्द्धमान ।। कुमर पदै अरु प्रथम वय, धाखो चरया निधान ॥६॥ छत्रपति उगणोस जिन, ब्रत तौजी वय सार। उत्कृष्ट आयु जिह समय, तमु चिगा भाग विचार ॥७॥
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वीर समय उत्कृष्ट स्थिति, वर्ष सवासय होय । भाग तीन को तमु, ए तीनं वय जोय ॥ ८॥
म सगले उत्कृष्ट स्थिति, विण भागे वय तीन । अन्तिम वय उगगोस जिन, धुर वय पंच सुचौन ॥६॥ श्वेत वरण चंद सुविधि जिन, पदम वासुपूज्य लाल । मुनि सुव्रत रिठनेम प्रभु, कृष्ण वरण सुविशाल ॥ १० ॥ मल्लिनाथ फुन पापूर्व प्रभु, नौल वरण वर अङ्ग । षोड़स शेष निमेश तनु, सोवन बरण सुचंग ॥ ११ ॥ श्रेयांस मलि मुनि सुव्रत जिन, नेम पार्श्व जगदीश । प्रथम पहर दीक्षा ग्रही, पिछले पोहर उन्नीस ॥ १२ ॥ सुमति जीम दौना ग्रहौ, अठम भक्त मल्लि मास । छठ भक्त जिन वीस वर, वासुपूज्य उपवास ॥ १३ ॥ ऋषभ अष्टापद शिव गमन, बौर मावापुरी दोस । मेम गिरनारे वासु चंपा, शिखर समेत सुबौस ॥ १४ ॥ ऋषभ संघारे शिव गमन, चउदश भक्त उदार । चरम छठ अणसण पवर, बावीस मास संधार ॥ १५ ॥ ऋषभ बौर अक नेम जिन, पल्यङ असल शिव पेठ । शेष इकवीस जिनेश्वरु, काउसग मुद्रा देख ॥ १६ ॥ बिन चौबीस तथा सुगुण, रचिये वचन रसाल । ध्यान सुधा वर सार रस, जय जश कर विशाल ॥ १०॥
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- प्रथम ऋषभ जिन स्तवन ।
(ऐसे गुरु किम पावियै एदेशी). बन्दु बे कर जोड़ने, जुग पादि जिनन्दा। कर्म रिपु गज उपरै, मृगराज मुनिन्दा ॥ प्रणम् प्रथम जिनन्द मे, जय जय जिन चन्दा ॥ ए आंकड़ी ॥१॥ मनुकूल प्रतिकूल सम सही, तप विविध तपिन्दा। चेतन तनु भिन्न लेखवी, ध्यान शुक्ल ध्यावंदा ॥२॥ पुद्गल सुख भरि पेखिया, दुःख हेतु भयाला। विरक्त चित बिगट्यो दूसो, नाण्या प्रत्यक्ष जाला ॥३॥ संवेग सरवर झूलतां, उपशम रस लौना । निन्दा स्तुति सुख दुःखे, सम भाव सुचौना ॥ ४॥ बांसी चन्दन सम पणे, थिर चित जिन ध्याया। इम तन सार तजी करी, प्रभु केवल पाया ॥५॥ई बलिहारी तांहरी, वाह वाह जिनराया। उवा दशा किण दिन पावसौ, मुझ मन उमाया ॥ ६ ॥ उगणीसै सुदि भाद्रवे दशमी दौतवारं । ऋषभदेव रटवे करी, हुमो हर्ष अपारं॥७॥
श्री अजित जिन स्तवन । .
(अहो प्रिय तुम वट पाडी पदेशी) पहो प्रभु यजित जिनेश्वर भापरो, ध्याउं ध्यान हमेश हो। अहो प्रभु अशरण शरना तूंही सही, मेटग
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" ) सकल कलेश हो ॥' हो प्रभु तुम हौं दायक शिव मंधना ॥ १ ॥ अहो प्रभु उपशम रस भरी चापरी, वाणी सरस विशाल हो । श्रहो प्रभु मुगत निसरणी महा मनोहरु, सुख्खां मिटे भ्रमजाल हो ॥ २ ॥ अहो प्रभु उभय बन्धण आप आखिया, राग द्वेष विकराल हो । अहो प्रभु हेतु ए नरक निगोदना, राच्या सूरख वाल हो ॥ ३ ॥ अहो प्रभु रमणी राक्षसणी समौ कही, विष बेलि मोह जाल हो । अहो प्रभु काम मे भोग़ किम्पाक सा, दाख्या दीन दयाल हो ॥ ४ ॥ अहो प्रभु विविध उपदेश देई करो, तें ताखा नर नार हो । अहो प्रभु भवसिन्धु पोत तूंही सही, तूंही जगत् आधार' हो ॥ ५ ॥ अहो प्रभु शरण आयो तुज साहिबा,
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वस रह्या होया मांहि हो । अहो प्रभु श्रागम वयण अङ्गो करौ, रह्यो ध्यानः तुज ध्याय हो ॥ ६ ॥ अहो प्रभु सम्वत् उगणीसै ने भाद्रवे, दशमी 'आदित्यवार हो । ग्रहो प्रभु आम तगा गुण गाविया वर्त्या जय जयकार हो ॥ ७ ॥
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श्री संभव जिन स्तवन ।
(हं बलिहारी हो जादव पदेशी )
संभव माहिव समरीय, धायो हो निग निरमल ध्यान के ॥ इक पुद्गल दृष्टि घामने ॥ कोधो हे मन
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मेरु समान' के ॥ संभव साहिब समरिये ॥ १॥ ए आंकड़ी॥ तन चञ्चलता मेट ने, हुआ हे जग थौ उदासौन कै। धर्म शुक्ल थिर चित्त धरै, उपशम रस में होय रह्या लोन कै ॥ सं० ॥ २ ॥ सुख इन्द्रादिक नां सहु, जाण्या हे प्रभु अनित्य असार के। भोग भयङ्कर कटुक फल, देख्या हे दुर्गति दातार कै ॥ सं० ॥ ३ ॥ सुधा संवेग रसे भया, पख्या हे पुद्गल मोह पास के। अरुचि अनादर प्राण ने, आत्म ध्यान करता विलास कै॥ सं० ॥ ४॥ संग छांड़ मन बंश करी, इन्द्रिय दमन करौ दुदंत के। विविध तपे करौ स्वामजौ, घाती कर्म नो कौधो अन्त के ॥ सं० ॥५॥ तुज शरणों आवियो, कर्म विदारण तं प्रभु बोर के। ते तन मन वच वश किया, दुःकर करणी करण महा धौर कै॥ सं॥ ६ ॥ संबंत उगणीस भाद्रवै, सुदि इग्यारस आण विनोद कै। संभव साहिब समरिया, पाम्यो हे मन अधिक प्रमोद के । सं० ॥ ७॥ ।
श्री अभिनन्दन जिन स्तवन । (सती कलूजी हो हुआ संजम ने त्यार एदेशी) तीर्थकर हो चोथा जग भाण, छांडि रहवास करी मति निरमली। विषय विटम्वणं हो तजिया, विष फल जाण । अभिनन्दन बान्दु नित्य मन रली ॥ १ ॥
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ए मांकड़ी ॥ दुःकर करणी हो कौधौ पाप दयाल, ___ ध्यान सुधा रस सम दम मन गलौ, संग त्याग्यो हो
जाणो माया जाल ॥ १० ॥२॥ बौर रसे करी हो कौधौ तपस्या विशाल, अनित्य अशरण भावन अशुभ निरदली। जग झूठो हो जाण्यो भाप कृपाल ॥ अ० ॥ ३ ॥ आत्म मन्त्री हो सुखदाता सम परिणाम, एहिज अमित्र अशुभ भावे कलकली। एहवी भावन हो भाया जिन गुण धाम ॥ अ० ॥ ४ ॥ लोन संवेगे हो ध्याया शुक्ल ध्यान, क्षायक श्रेणी चढी हुपा केवलौ। प्रभु पाम्या हो निरावरण सुज्ञान ॥ प. ॥ ५॥ उपशम रस भरी हो वागरौ प्रभु बाग, तन मन प्रेम पाया जन सांभली। तुम वच धारी हो पाम्या परम कल्याण ॥ अ० ॥ ६ ॥ जिन पभिनन्दन हो गाया तन मन प्यार, सम्बत् उगणीसै ने भादवे अघदली । मुदि इग्यारस हो हुओ हर्ष अपार ॥ अ० ॥ ७ ॥
श्री सुमति जिन स्तवन । (मुरख जीवड़ा रे गाफल मत रहे एदेशो) मुमति जिनेश्वर साहेव शोभता, सुमति करण संसार। सुमति जप्यां थी सुमति बधै घगो, मुमति मुमति दातार ॥ मु० ॥१॥ ए आंकड़ी ॥ ध्यान सुधारस निर्मल ध्याय ने, माम्या केवल नाण। वाम
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सरस वर जन बहु तारिया, तिमिर हरण जग भाण ॥ सु० ॥२॥ फटिक सिंहासण जिनजी फावता, तरु माशोख उदार। छव चामर भामंडल भलकतो, सुर दुन्दुभि झिणकार ॥ सु० ॥३॥ पुष्प वृष्टि वर सुर ध्वनि दोपतो, साहिब जग सिणगार। अनन्त ज्ञान दर्शन मुख बल घणं, ए हादस गुण श्रीकार ॥ सु० ॥ ४ ॥ बाणो अमी सम उपशम रस भरी, दुर्गति मूल कषाय । शिव सुखना भरि शब्दादिक कह्या, जग तारक जिनराय ॥ सु० ॥ ५॥ अन्तरजामी रे शरणै आप रे, हूँ पायो अवधार। जाप तुमारो रे निश दिन संभक, शरणागत सुखकार ॥ सु० ॥ ६ ॥ सम्बत् उगणोसै रे सुदि पक्ष भाद्रवे, वारस मंगलवार । सुमति जिनेश्वर तन मन स्यूं रव्या, पानन्द उपनो अपार ॥ सु० ॥॥
श्रो पद्म जिन स्तवन । (जिन्दवे री देशी छै सुण भगते भगवन्त के एदेशी) निर्लेप पद्म जिसा प्रभु. पद्म प्रभु पौछाण २ संयम लौधो तिण समै। पाया चोथो नाण, पद्म प्रभु नित्य समरिये ॥ १॥ ए मांकड़ी॥ ध्यान शुक्ल प्रभु ध्याय ने, पाया केवल सोय २। दीन दयाल तणो दिशा,
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कहणी नांवे कोय ॥ पद्म० ॥ २॥ सम दम उपशम रस भरी, प्रभु आप रौ बाणि २ । त्रिभुवन तिलक तूही सही, तूं ही जनक समान ॥ पद्म० ॥३॥ तूं प्रभु कल्पतरू समो, तूं चिन्तामगिा जोय २। समरण करतां आपरो, मन वंछित होय ॥ पद्म० ॥ ४ ॥ सुखदायक सहु जग भणी. ही दीन दयाल २ । शरणे
आयो तुज साहिवा, तूही परम कृपाल ॥ पद्म० ॥ ५॥ गुण गातां मन गहगहे, सुख सम्पति जाग २ । विघ्न मिटै समरण किया, पामै परम कल्याग । पट्म० ॥ ६ ॥ सम्बत् उगणीसे ने भाद्रवे, सुदि वारस देख २ । पदम प्रभु रट्या लाडनू, हुयो हर्ष विशेष ।। पटम० ।। ७ ॥
श्री सुपास जिन स्तवन ।
(कृपण दीन अनाथ ए एदेशी) सुपास सातमां जिणंद ए,. ज्यांने सेवे सुर नर छन्द ए। सेवक पूरण पाश ए, भजिये नित्य खामि सुपास ए॥ १॥ ए आंकड़ो। जन प्रति वोधया काम ए, प्रभु वागरे वाण अमाम ए। संसार स्यू हुवै उदास ए॥ भ० ॥ २॥ पामै काम भोग थी उद्देश ए, वलि उपजै परम सवेग ए। एहवा तुम वच सरस-विलाम
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ए॥ भ० ॥ ३॥ घणी मोठी चक्री नी खौर-ए, वलि खोर समुद्र नो नौर ए। एह थौ. तुम वच अधिक विमास ए ॥ भ० ॥ ४ ॥ सांभल ने जन वृन्द ए, रोम रोम में पासें थानन्द ए। ज्यारी मिटै नरकादिक बास ए ॥ भ० ॥ ५ ॥ तूं प्रभु. दीन दयाल ए, लूँही अशरमा शरण निहाल ए। इधं तुसारो दास ए॥ म०॥ ६ ॥ सबत उगगौसे सोय ए, भाद्रवा सुदि तेरस जोय ए। पहंची मन नी आश ए ॥ स० ॥ ७॥
श्री चन्द्र प्रभु जिन स्तवन ।
(शिवपुर नगर सुहामणो एदेशी) __ हो प्रभु चन्द जिनेश्वर चन्द जिस्या, बागी शीतल चन्द सी न्हाल हो । प्रभु उपशम रस जन सांसलै, मिटै कर्म भ्रस मोह जाल हो ॥ प्रभु ॥१॥ए अांकड़ो। हो प्रभु, सूरत मुद्रा सोहनी, बारु रूप अनप विशाल हो। प्रम इन्द्र शचि जिन निरखतौ, ते तो स्वतन होवे निहाल हो ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ अहो वीतराग प्रभु तं सही, तुम ध्यान ध्यावे चित्त रोक हो। प्रभु तुम तुल्य ते हुवे ध्यान स्यू , मन पाया परम सन्तोष हो ॥ प्रभु ॥३.१ हो प्रभु लौन पगो तुम ध्यावियां, मामै इन्द्रादिक नौ ऋद्धि हो। वले विविध भोग सुख सम्पदा, लहे आमो सही आदि लब्धि हो ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ . हो
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( १० ) प्रभु नरेन्द्र पद पामे सही, चरण सहित ध्यान तन मन हो । प्रभु अहमिन्द्र पद पावै वलि, कियां निश्चल थारी भजन हो ॥ प्रभु० ॥ ५॥ हो प्रभु शरण आयो तुज साहिवा, तुम ध्यान धरूं दिन रयन हो। तुज मिलवा मुझ मन उमह्यो, तुम शरणा स्यूँ सुख चैन हो ॥प्रभु० ॥ ६ ॥ संवत उगगौसे ने भाद्रवे, सुदि तेरस ने बुधवार हो । प्रभु चन्द्र जिनेश्वर समरिया, हुमो आनन्द हर्ष अपार हो ॥ प्रभु० ॥ ७ ॥
श्री सुविधि जिन स्तवन ।
(सोही तेरा पंथ पावं हो एदेशी) __सुविधि करि भजिये सदा, सुविधि जिमेश्वर स्वामी हो। पुष्प दन्त नाम दूसरो, प्रभु अन्तरजामी हो । सुविधि भजिये सिरनामौ हो ॥ १॥ ए आंकड़ी ॥ श्वेत वरण प्रभु शोभता, वारू वाण अमामी हो। उपशम रस गुण अागली, मेटम भव भव खामी हो ॥ सु० ॥२॥ समवसरण विच फावता, त्रिभुवन तिलक तमामो हो। इन्द्र धको ओपै घणां, शिवदायक खामी हो ॥ मु० ॥ ३ ॥ सुरेन्द्र नरेन्द्र चन्द्र ते, इन्द्रागो अभिरामी हो। निरग्ड निरख धापै नहीं, एहयो रुप मामी हो ॥सु० १४ ॥ मधु मकरन्द तगो परें, सुर ना करत सलामी
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हो। तो पिण राग व्यापै नहीं, जौल्यों मोह हरामी हो ॥५॥ जे जोधा जग में घगा, सिंघ साथै संग्रामौ हो। ते मन इन्द्रिय बश करौ, जोड़ी केवल पामो हो । सु० ॥ ६ ॥ उगणीसै पुनम भाद्रवी, प्रगामु शिरनामी हो। मन चिन्तित वस्तु मिलै, रटियां जिन स्वामी हो ॥ सु० ॥ ७॥ . .
श्री शीतल जिन स्तवन । ( देवा आइ ओलंभड़ो सासुजी एदेशी) शीतल जिन शिवदायका ॥ साहेबजी ॥ शीतल चन्द समान हो ॥ निस्नेहो ॥ शीतल अमृत सारिखा ॥ साहेबजी ॥ तप्त मिटै तुम ध्यान हो ॥ निस्नेही ॥ सूरत थांरो मन बसौ साहेबजी ॥ १ ॥ बंद निंदे तो भणौ साहेबजी, राग द्वेष नहौं ताम हो ॥ निस्नेही । मोह . दावानल ते मेटियो । साहेवजी,॥ गुण निष्पन्न तुम नाम हो ॥ निस्नेही ॥ सू० ॥ २॥ नृत्य करै तुज भागले साहेबजौ, इन्द्राणी सुर नार हो । निस्नेही ।। राग भाव नहीं उपजे ॥ साहेवजी॥ ते अन्तर तप्त निवार हो । निस्नेही ।। सू० ॥३॥ क्रोध मान माया लोभ ए ॥ साहेबजी ॥ अग्नि तूं अधिकी आग हो ॥ निस्नेही । शुल्ल ध्यान रूप जन्नकरी ॥ साहेबजी।।
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।-प्र० ॥ ४ ॥ स्त्री स्नेह पाशा दुर्दन्ता, कह्या नरक निगोद तणा पन्था। इह भव परभव दुःखदागी ॥प्र० ॥ ५ ॥ गज कुम्भ दलै मृगगज हणी, पिण दोहिलौ निज आत्मा दमणौ । इम सुण बहु जीव चेत्या जाणी ॥ प्र० ॥ ६ ॥ भाद्रवौ पूनम उगणोसो, कर जोड़ नमं वासुपूज्य दूसो। प्रभु गांतां रोम राय हुलसायो ।प्र०॥७॥
श्रो बिमल जिन स्तवन ।
काय न माँगा काय न मांगा हो राणाजी मांगा पूर्ण प्रीत बीज
.. (काय न मांगा एदेशी ) शरगणे तिहार हो विमल प्रभु, सेवक नौ अरदाश । आयो शरण तिहार हो, विमल करण प्रभु विमलनाथजी॥ विमल आप मल रहीत. विमल ध्यान धरतां हुवे निर्मल। तन मन लागी प्रोत, साहेव शरगो तिहार हो ॥ १॥ विमल ध्यान प्रभु श्राप ध्याया, तिण सू हुआ विमल नगदीश । विमल ध्यान वलि जे कोई ध्यासी, होसौ विमल सरीस ॥ सा० ॥ २ ॥ विमल - गृहवासे द्रव्य जिनेन्द्र था, दीक्षा लियां भाव साध । केवल उपना भावे जिनेश्वर,भाव विमल आगध सा० ॥३॥ नाम स्थापना द्रव्य विमल थी. कारन न सर कोय। भाव विमन्न ची कारज मुधर, भाव जप्यां शिव होय ॥.स.
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( १३ ) कृष्टो ध्यान तणो कियो, आलम्बन श्री जिनराज रे॥ श्र० ॥ ३ ॥ इन्द्रिय विषय विकार थी, नरकादिक कलियो जीव रे। किम्पाक फल नौ उपमा, रहिये दूर थो दूर सदौव रे ॥ ॥ ४॥ संथम तप जप शील ए; शिव साधन महा सुखकार रे । अनित्य अशरगा अनन्त ए, ध्यायो निर्मल ध्यान उदार रे। २ ||५|| स्त्रियादिक ना सङ्ग ते, आलम्बन दुःख, दातार रे । अशुद्ध आलम्बन छोड़ने, धस्यो ध्यान आलम्बन सार रे ॥ श्रे० ॥ ६ ॥ शरणे आयो तुज साहिबा, करूं बारम्बार नमस्कार रे । उगणौसै पूनम भाद्रवे, मुझ वा जय जयकार रे ॥ श्रे ॥७॥
श्री बासुपूज्य जिन स्तवन ।
(ईम जापं जपो श्री नवकार ए एदेशी) द्वादशमा जिनवर भजिये, राग द्वेष मच्छर माया तजिये। प्रभु लाल बरण तन छिव जाणी, प्रभु बासुपूज्य भजले प्राणी ॥ १॥ बनिता जाणी बैतरणी, शिव सुन्दर वरवा इस घणो। काम भोग तज्या किम्पाक जाणौ ॥ प्र० ॥ २॥ अञ्जन मञ्जन स्यं अलगा, वलि पुष्फ विलेपन नहीं विलगा। कर्म काट्या ध्यान मुद्रा ठाणौ ॥ प्रे० ॥३॥ इन्द्र धेको अधिका ओपै, करुणागरः कदे नहीं कोपे। वर शाकर दूध जिसी वाणी
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( १२ ) थया शौतलिभूत महाभाग्य हो ॥ निस्नेही॥सू०॥४॥ इन्द्रिय नोइन्द्रिय, आकरा ॥ साहेवजी ॥ टुर्जय में टुर्दान्त हो ॥ निस्नेही ॥ ते जोता.मन थिर करी ॥ साहेवजी ॥ धरि उपशम. चित शान्ति हो। निस्नेही ॥ ५॥ अन्तरजामी आपरी ।। साहेबजी ॥ ध्यान धसे दिन रैन हो ॥ निस्नेही ।। उवाही दिशा कद भावसी ॥ साहेबजी ॥ होसी उत्कृष्टो चैन हो ॥ निस्नेहो । सू० ॥ ६ ॥ उगणीसै पूनम भाद्रवीः॥ साहेबजी ॥ शीतल मिलवा काज हो ॥निस्नेहौ।। शीतल जिनजी ने समरिया ॥ साहेबजौ ।। हियो शीतल हुमो पाज हो ॥ निस्नेही ।। सू० ॥ ७ ॥ . .
श्री श्रेयांस जिन स्तवन ।
(पुत्र वसुदेवनो एदेशी) , मोच मार्ग श्रेय शोभता, धाया खाम श्रेयांस उदार रे । जे जे श्रेय वस्तु संसार में, ते ते आप करी अङ्गीकार रे । ते ते पाप करी अङ्गीकार, श्रेयांस जिनेज्वा प्रणम् नित्य बे कर जोड़ रे ॥ १ ॥ समिति गुप्ति दुःधर घषा, धर्म शुक्ल ध्यान उदार रे । - ए श्रेय वस्तु शिव दायनी, पाप भादरीर्ष अपार रे ॥ ॥२॥ तन चञ्चलता मेटने, पदमासन आप विराज रे । उत्
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॥४॥ गुण गिरवी गंभौर धौर तूं, तू मेटण जम वास। मैं तुम वयण आगम शिर धावा, तू मुज पूरण आश ॥ सा ॥ ५॥ तूं हो कृपाल दयाल'तू साहेब, शिवदायक तू जगनाथ। निश्चय ध्यान कर तुन अोलख, ते मिले तुज संघात ॥ सा० ॥ ६ ॥ अन्तरजामौ आप उजागर, मैं तुम शरगो लौध। सम्बत् उगणीसै भाद्रवौ पूनम बछित कार्य सिद्ध ।। सा० ।। ७॥ .
श्री अनंत जिन स्तवन।
(पायो युगराज पद मुनि एदेशी) । अनन्त नाम जिन चउदमारे, द्रव्य चोथे गुणठांणं भलांजी काई द्रव्य० । भावे जिन हुवै तेरमे रे, इतले द्रव्य जिन जाण ॥ भलाजौ, काई दूतलै द्रव्य जिन जाण, पायो पद जिनराज नू रे। शुद्ध धान निर्मल धधाय, भला० पायो पद ॥ १ ।। जिन चक्री सुर जुगलिया रे, वासुदेव बलदेव भला० बा० । ए पंचम गुण पावै नहौं रे, ए रोत अनादि खमेव भला. ए.पा. ॥२॥ संयम लौधो तिण समै रे, आया सातमें गुण ठाण भलां० 'आ० । अन्तर मुहर्त तिहां रही रे, छठे बहु स्थिति जाण भलां० छ० ॥ पा० ॥३॥ आठमां थो दोय श्रेणी छे रे, उपशम खपक पिछाण भला० उ० उपशम जाय इग्यारमें रे। मोह दवाव तो जाण भला.
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मो। पा० ॥ ४॥ श्रेणी उपशम जिन ना लहै गे, खपक श्रेणी,धर खंत भ० ख० । चारित्र मोह खपावतां रे, चढिया ध्यान अत्यन्त भ० ० ।। पा०॥ ५ ॥ नवसे आदि संजल चिहुं रे, अन्त समें इक लोभ भ० अं० दसमे सूक्ष्म मात्र ते रे, सागार उपयोग शोभ भ० सा० ॥ मा० ।। ६ ॥ एकादशमो उलंघनै रे. बारमें मोह खपाय भ० बा० । तिकर्म एक समै तोड़ता रे, तेरमें केवल पाय ।। पा०.७॥ तीर्थ थाय योग रूंधनै रे, चउदमा थो शिवपाय भ० च० । उगणोसै पूनम
भाद्रवे रे, अनन्त रट्या हरषाय भ० अ० ॥पा०॥८॥ __ ओ स्तवन नोचे लिखे मुजब चालमें भी
'गायो जाते है। ..... अनन्त नाम जिन चवदमां. जिनराय रे। द्रव्य चोथे गुगा स्थान खाम सुखदाया रे || भावे जिन हुवै तेरसें, जिनगया रे। इतले द्रव्य जिन जागा, स्वाम सुखदाया रे ॥ १॥ . . . . .
. श्री धर्म जिन स्तवन । .
.. (भिक्षु पट भारीमाल भलर्क पदेशी ) . धर्म जिन धर्म तगणा धोरी. घटक मोहपाश नाख्या तोड़ी । चरमा धर्म आत्म स्यूँ जोड़ी अहो प्रभु धर्म देव
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ध्यारा ॥ १॥ शुक्लं ध्यान अमृत रस लौना, संवेग रस करो जिन भौना । प्याला प्रभु उपशम ना पीना ॥ अ० ॥ २॥ जाण्या शब्दादिक मोह बाला, रमणी सुख किम्पाक समकाला। हेतु नरकादिक टुःख पाला ॥ १० ॥३॥ पुगल शिष अरि जाण्या खामी, ध्यान थिर चित्त आत्म धामौ। जोड़ी युग केवल नौ पामी ॥ अ० ॥ ४ ॥ थाप्या प्रभु च्यार तौरथ तायो, माख्यो धर्म जिन शाज्ञा मांयो । आज्ञा बाहिर अधर्म दुःखदायो । अ० ॥ ५ ॥ व्रत धर्म धर्म जिन ाख्याता, अब्रत कही अधर्म दुखदाता। सावछ निरवछ जु जुश्रा करवा खाता- अ॥ ६ ॥ बहु जन तार मुक्ति पाया, उगग्नीसै आसू धुर दिन आया। धर्म जिन रटदे सुख पाया । अ०७॥
श्री शान्ति जिन स्तवन ।
(हूं बलिहारी भीखणजी साधरी एदेशी) शान्ति करन प्रभु शान्तिनाथजी, शिव दायक सुखकन्द की। बलिहारी हो शान्ति जिवन्द कौ ॥ १॥ अमृत वाणी सुधासौ अनुपम, मेटरह मिथ्या मंदकी सव०॥ २॥ काम भोग राग इस कटक फल, विष बेलि मोह धन्दको । ब० ॥३॥ गक्षसणी रमणी वैतरणी । पुतली
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अशुचि टुगंध को । व० ॥ ४ ॥ विविध उपदेश देव जन तास्या, हवारी जाउ विश्वानन्द की ॥ ब० ॥५॥ परम दयाल गोवाल कृपानिधि, तुज जम माला आनंद की ॥ ब० ॥ ६ ॥ सम्बत् उगणीसै आसू वदी एकमा शान्ति लना मुख कन्द कौ ॥ ब० ॥ ७॥
श्री कुन्थु जिन स्तवन ।
बाल्हो तो भावना रो भूखो एदेशी) , . . कंथ जिनेचर करुणा सागर, त्रिभुवन शिर टीको ?' प्रभु को समरस कर नौको रे ॥१॥ अमृत रूम अनुपम कंथु निन, दर्शन जग पीयको रे ॥ प्र० ॥ २॥ वाणी मुधा सम उपशम रसन्नी, बालहो जग बौकोरे ॥ प्र० ॥ ३ ॥ अनुकम्पा दोय श्री जिन दाखौ, धर्म यो समदृष्टि को रे ॥ प्र० ॥ ४ ॥ असंयनी रो जीवगा बांछे, ते सावय तह तौको रे ॥ प्र० ॥ ५॥ निरवद्य करुमा करौ जन ताया, धर्म ए जिनजी को रे ॥ प्र० ॥६॥ सम्वत् उगणीसै आसू वदी एकम, शरणो साहेवजी की रे ॥ प्र० ॥
श्री पर जिन स्तवन । (देवो सहियां धनरोप नेम कुमार पदेशो) अर जिन कर्म अरी नां हंता, जगत उडारण । जिहाज । मोमे प्याग लागे के जी ।। अर जिनराज ।।
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ब० ॥
। आनंद
मोने वाला लागै छै जो अर महाराज ॥ १ ॥ उपसर्ग रूप अरि हरा, पाथा केवल पाज ॥ मे नयण न धामे निरखतांजी, इन्द्राग्नी सुर राज ॥ ३॥ वालं रे जिग्नेश्वर रूप अनूपम, तू सुगुर ताज । मो० ॥ ४॥ वाणी विशाल दयाल प भूख सषा जावे भाज ।। मो० ॥ ५ ॥ शर खाम रे जौ, अविचल सुख ने काज । मो० । उगहोसै आसू बदी एकम, आनन्द उपलो मो० ॥७॥
श्री मल्लि जिन स्तवन ।' . (जय गणेश ३ देवा तथा दीन दयाल जाण चरण एदे
नौल वर्ण मल्लि जिनेश्वर, ध्यान निमल अल्प काल मांहि प्रभु, परम ज्ञान पायो। जिनेश्वर नाम; संमर तरण शरम आयो।।१ युप्यमाल जेम, सुगन्ध तन सुहायो । सुर वधु व भमर, अधिक हो लिपटायो । म ॥२॥ चक्र विविध विश्न; मिटत 'तुझ पसायो। सिवन गजेन्द्र जेम टूर जायो । म० ॥ ३॥ बागी निर्मल सुधर, रस सवेग छायो। नर सुरासु समझ, सुगत हो हरषायो।। म. ॥ ४ ॥ न नूहो कपाल, जनक ज्य: सुखदायो। वत्स
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( . २० । खाम साहिव, सुजश तिलक पायो । म० ॥ ५ ॥ जप्त जाप खपत पाप, तप्त हौ मिटायो । मल्लि देव निविधि सेव, जग अछेरो पायो । म०॥६॥ उगमौसै चासोज तीज कृष्ण मुदिन आयो, कुम्भं नन्दन कर अानन्द । हर्ष थी में गायो॥ म० ॥ ७ ॥ श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन ।
शोरठ। (भरतजी भूप भवाछो वैरागो एदेशी) मुमिन्त्र, नन्दन श्री मुनि सुव्रत, जगत नाथ जिन जाणी। चारित्र लेड केवल उपजायो, उपशम स्सनी वाणीरा ॥ प्रभुजी, आप प्रवल वड़ भागौ ॥१॥ विभुवन दीमक सागीरा ॥ प्र० ॥ श्रा० ॥ ए अांकड़ी। चौतीस अतिशय पैंतीस वाणी, निरखत सुर इन्द्राणी। संवेग रसनी वाणी सांभल, हर्ष स्यू अांच्या भराग्नी रा ॥ प्र० ॥ आ० ॥ २॥ शब्द रूप रस गन्ध अने स्पर्श प्रतिकूल न हुवै तुम आगे, ज्यू पंच दर्शन थास्यं पग नहीं मांडै । तिम अशुभ शब्दादिक भागे रा ॥ प्र० ॥ या० ॥३॥ मुर कृत जल म्थन्त पुत्र पुञ्ज वर, ते शंडी चित दीनो । तुझ निश्वास सुगन्ध मुख. परिमल, मन भमर महा लौनो ग ।। प्र० । अा.. ॥४॥ पंचेन्द्री
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। २१ ) 'सुर नर तिरि तुम स्यं, किम हुवै दुखदायो। एकेन्द्री अनिल तो प्रतिकूल पणं, बाजे गमतो वायो रा॥प्र० ॥ आ० ॥ ५ ॥ राग द्वेष दुरदन्त ते दमिया, जीत्या विषय विकारो। दीन दयाल आयो तुज शरणे, तू गति मति दातारी रा॥ प्र० ॥ आ० ॥ ६ ॥ सम्बत् उगणीस
आसोज तीज कृष्ण, श्री मुनि सुब्रत गाया। लाडनू शहर मांहि खड़ी रौतें आनन्द अधिको माया रा ॥ प्र. । प्रा० ॥ ७॥
श्री नमि जिन स्तवन । (परम गुरू पूज्यजी मुज प्यारा रे एदेशी) नमि नाथ अनाथां रा नाथो रे, नित्य नमण करूं जोड़ी हाथो रे। कर्म काटण वीर विख्यातो, प्रभु नमिनाथजी मुझ प्यारा रे ॥१॥ प्रभु ध्यान सुधा रस ध्याया रे, पद केवल जोड़ी पाया रे। गुण उत्तम उत्तम पाया ॥ प्र० ॥२॥ प्रभु बागरी बाण, विशालो रे, खौर समुद्र थी अधिक रसालो रे । जग तारक दीन दयालो ॥ प्र० ॥ ३॥ थाप्या तीर्थ च्यार जिणन्दो रे, मिथ्या तिमिर हरण ने मुणन्दो रे । त्यांने सेवे सुर नर वृन्दो ॥ प्र० ॥ ४॥ सुर अनुत्तर विमाण ना सेवे रे, प्रश्न पूछशां उत्तर जिन देवे रे । अवधि जान करी जाण लेवे ॥प्र. ॥५॥ तिहां बैठा ते तुम ध्यान ध्यावे रे, तुम योग मुद्रा चित्त
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अडिग जिनवर । मुर गिर जेम सधीर ॥ नहीं ॥१॥ संगम दुःख दिया आकरा रे, पिन सुप्रसन्न निजर दयाल । जग उदार हुवै मो थकी रे, ए डूवे इण काल ॥ नहौं ॥२॥ लोक अनार्य बहु किया रे, उपसर्ग विविध प्रकार । ध्यान सुधा रस लौनता जिन, मन में हर्ष अपार ॥ नहौं ॥३॥ इन पर कर्म खपाय ने प्रभु, पाया केवल नाण । उपशम रस मय वागरी प्रभु, अधिक अनुपम धागा ।। नहौं ।। ४ ।। पुद्गल सुख परि शिव तणा रे, नरक तथा दातार। छांडि रमगी किम्पाक वैलि, संवेग संयम धार ॥ नहीं ॥ ५॥ निन्दा स्तुति सम पो रे, मान अने अपमान । हर्ष शोक मोह परिहयां रे, पामै पद निर्वाण ।। नहौं० ॥ ६ ॥ इम बहुजन प्रभु तारिया रे, प्रामं चरम जिनेन्द । उगणीस आसोज चोथ वदी, हुवो अधिक आनन्द ॥नहीं ॥७॥
इति यौ भौखणजौ खामो तस्य शिष्य भारीमालनी खामी, तस्य शिष्य रिषरायचन्दजी। खामी तस्य शिष्य जीतमलजी स्वामी कृत चतुर्विंशति जिन स्तुति समाप्तः ।
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नवकार नी पाटी। शामो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, लामो उवज्झायाणं, गमो लोए, सव्व साहणं ।
सामायक लेने की पाटी। करेमि भंते सामायियं सावज्ज' जोगं पञ्चक्खामि जाव नियम ( मुहूर्त एका ) पज्जवा सामि दुविहिं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मनसा वायसा कायसा तस्म भते पडिकमामि निन्दामि गरिहामि अय्याणं योसरामि।
सामायक पारणे की पाटी। - नवमा सामायक ब्रत ने विषै ज्यो कोई अतिचार दोष लागो हुवै तो पालोऊ १ सामायक में मुमता न कीधी विकथा कीधौ हुवै श्रण पूरी पारौ होय पारवो विसायो होय मन बचन काया का जोग माठा परवताया होय सामायक में राज कथा देश कथा स्त्री कथा भत्त कथा करी होय तथ मिच्छामि दुक्कडं ।
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अथ सीमंदर स्वामीजी रो स्तवन ।
( राग खटमल री )
सौमन्दर स्वामी, तुम दरशण रो ह कामी हो । ॥ जिनजी दरशण रौ बलिहारी ॥ विनय करो मन मोड़ी, नित वान्द्र' वे कर जोड़ी हो || जि० ॥ १ ॥ महाविदेह मकारी, पुण्डरिकणी नगरी भारी हो । जि० ॥ श्रेयांस नृप सुखकारी, सतको नामे तमु नारी हो || नि० ||२|| उत्तम कुल उदारी, तठे आप लियो अवतारी हो । जि० ।। मुमना लह्या दश च्चारी, हिवड़ा हरख अमारी हो ॥ जि० ॥ ३ ॥ शुभ मुहर्त्त तुम जाया, जव सुरपति मिलने आया हो । जि० ॥ मोeva भारी कीधो, तुम नाम सोमंदर दौधो हो । जि० ० ॥ ४ ॥ दिन २ वधे जिम वागो, तृण ज्ञान सकल गुण खाणो हो । जि० ॥ परखा रुखमण नारी, बहु लौल करो संसारौ हो । जि० ॥ ५ ॥ मोह माया सव त्यागी, घर छोड़ हुवा वैरागी हो । जि० ॥ वातिया कर्म खपाया, नद केवल पदवी पाया हो ॥ जि० ॥ ६ ॥ मिल आया सुर नर नारी, देशना दोधी हितकारी हो ॥ जि० ॥ भीज गया भव प्राणी, चो संग
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( २७ ) थया गुणखाणी हो ॥ जि०॥७॥ पांच ने तीस बखाणी, मोठी तुम अमृत बाणी हो ॥ जि० ॥ अतिशय तीस ने च्यारी, आप उत्कृष्टा उपगारी हो ॥ जि० ॥८॥ गुण निध दौन दयाला, किया तीन भुवन उजयाला हो ॥ जि. ॥ सुर तरु ध्ये न समानो, तुम समस्यां मोक्ष सुथानो हो । जि० ॥६॥ सुन्दर देही सोहे, सुर मानव रो मन मोहे हो ॥ जि० ॥ लुल २ पाये लागे, कर जोड़ खड़या रहे आगे हो ॥ जि० ॥ १० ॥ मन उमाहो सांहरे, जाणे रह पास तुमारे हो ॥ जि० ॥ बाणो सुण नित नेमो, प्रश्न पूछु धर प्रेमो हो ॥ जि. ॥ ११ ॥ अन्तराय कर्म मुझ भारी, लियो भरत मके अवतारी हो ॥ जि० ॥ पिण ई बचनां रो रागी, खोटी सरधा सब त्यागी हो । जि० ॥ १२ ॥ भूल गया लेड भेषो, कर रह्या फेन बिशेषो हो । जि० ॥ 'पिण ई सगलां स्यं चारो, तुम मारग लागे प्यारो हो ॥ जि. ॥ १३ ॥ मोर मन जिम मेहा, नर नारी इधक सनेहा हो ॥ जि०॥ चकोर चाहे जिम चन्दा, चकवा मन जेम दिनन्दा हो ॥ जि० ॥ १४ ॥ केतको भमरज ध्यावे, कदलौ बन कुञ्जर चावे हो ॥ जि० ॥ वालक जिम मन माता, हंस मान सरोवर गता हो ॥ जि० ॥ १५ ॥ पपैयो चावे पाणी, खुदियातुर भन्न पिछाणी हो ॥जि०॥
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( २८ ) गागर चित पणिहारी, वंश ऊपर नट विचारी हो॥ जि० ॥ १६ ॥ इर्या पथ ऋष ध्यानां, काजी मन जेम कुराना हो ॥ जि० ॥ इम धरूं ध्यान तुमारा, अन्य देव तज्या मैं सारा हो ॥ जि० ॥१७॥ पूरब लाख तियासी, जिन आप रह्या घर वासी हो ॥ जि० ॥ लाख पूरव रो दोचा, तुम देवो रुड़ी शिक्षा हो ॥ जि० ॥ १८ ॥ तास्था घणा नर नारी, मेल्या शिवगत सरकारी हो । जि०। चार कर्म करौ अन्त, लहस्यो शिव सुख अनन्त हो ॥ जि० ॥ १६ ॥ क्रोड़ कवि गुण गावे, पिण पार कदे नहीं पावे हो ॥ जि० ॥ वुद्ध मामा तवन जोड़ी, ए तवन कियो धर कोड़ी हो ।। जि० ॥ २० ॥ आपगा पर उपगार, फतेपुर शहर मझार हो || जि. ।। ऋष चन्द्रभाग गुण गाया, भले भवियण रे मन माया हो || वि० ॥२१॥
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श्री काल गणिराज के गुणा की ढाल १ ली।
उमराव र्थारी बोली प्यारी लागे मेरी जान ( पदेशी )
हो गगिगज धागे शासन अधिकी दोपे मोरा स्वाम। हो महाराज थारी वोली प्यारो लागे मोग स्वाम ॥ १॥ भरते भिनु आदि जिनन्द जिम आय लियो पवतार । भव जीवां ने वारवा काई कान्यो माग्ग
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( २६ ) सार हो॥२॥ तसु अष्टम पाट विराज्या श्री काल गणी महाराज। मेहर करी म्हां ऊपर दियो चौमासो कराय हो ॥३॥ ठंडीरामजी सन्त विराज्या दिया घणां जौवां ने समझाय। भव जीवां ने तारवा कांई 'पाप बड़ा मुनिराय हो ॥ ४ ॥ अब उदासर को यह विनती सुन लोज्यो महाराज । सिल्यासौ के साल को दो चौमासो फरमाय हो ॥ ५॥ भायां वायां रे सौखण सुगन को लग रही मन में चाव। जल्दी हुकम फरमावो मुझने होवे घणो उछाव हो ॥ ६ ॥ टीकू तोलू की यह विनती कर लोज्यो प्रमाण। अरजी सुणने मरजौ कोज्यो चौमासो चित्त प्राण हो ॥ ७॥ सम्बत् उगणीसै साल छौयासी माघ मास में आस । शुक्लपक्ष सप्तमी दिन दास करे अरदास हो ॥८॥
॥ ढाल २ जी ॥ लिछमन मूर्छा खाई जब धरण पड़े रघुराई हाहाकार मचाई (एदेशी)
पांचमे आरे पौछानौ, श्री आदि जिनन्द जिम जानी। प्रगटे श्री भिक्षुनाणी, भवि हित 'काम काम काम ॥ निस दिन. ध्याऊ हो गणि नाथ, आप रो नाम नाम नाम ॥ १॥ तमु अष्टम माटे नौको, मूलचन्दजी रो कोको। यह चहू तौरथ सिर टौको, कालू खाम ३ । निस दिन ध्याऊ हो गणिनाथ, आपरो
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नाम नाम नाम ॥ २ ॥ चंद पूनम नो नौको, ज्य सती छोगांजी को कोको । ज्ञान गुणां करो तोखो, तपे ज्य भान ३ ॥ निस दिन ध्याऊ हो गणिनाथ आप रो ध्यान ३ ||३|| घारी कौरति जग में छाई, तब पाखण्ड मचाई। गणि शिष्य गये तिहां ध्याई, भवि साया धूम काम ३ ॥ ४ ॥ उत्तम ज्य मुनिवर पेखौ, पाखण्डा रो गम गई सेखी। नाशा सो विसेखी, राखन माम ३ ॥५॥ प्रभु मुझ पे कृपा कीजे, एक शिवरमनो बकसीजै । चाकर पे मेहर राखौ, अपनो जान ३ ॥ ६ ॥ भाज भलो दिन आयो, ह दरशन कर सुख पायो । छयासोक मंग उमायो, कहे ठंडीराम ३ ॥ निस दिन ध्याऊ' हो गणिनाथ आपरो नाम नाम नाम ॥ ७ ॥
॥ ढाल ३ री ॥
काली बिलायो ए भैरू विलमायो ए ( एदेशी ) सुगण जन कालू गुण गावो रे, कालू गुण गावो रे । थांरा भव २ पातक नाय, चेतानन्द प्रभु गुण गावो रे । ए बांकड़ी | १ | शहर छामर प्रति दौपसोनी, कांई अस वंश सुखकार || चेतानन्द ॥ जात कोठारी दीपताओ, कांई मूलचन्द घर सार ॥ सुगगा ॥ २ ॥ सुभठामें घी चवी करी जो, कांई पुन्यवन्त जौव उदार " लोगांत्री के कूच में जी, कांई यान लियो
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। ३१ ). पवतार ॥ सु० ॥३॥ उगणीसै तेतीसमें जी, कांई फागण मास मभार ॥ चे ॥ शुभ नक्षत्र आवियोजौ, काई प्रसव्यो पुन उदार ॥ सु० ॥ ४॥ जिन मारग दीपाव्यो जौ, काई भिन २ दिया रे समझाय ॥ चे० ॥ बुद्धि उतपात थाहरौ धौ जी, काई सौख्या सूत्र अथाय । सु० ॥ ५ ॥ उगणीसै चमालौस में जौ, कांई लोधो संयम भार ॥ चे० ॥ गुण कठे लग बरणवं जी, काई कहता न आवे पार ॥ सु० ॥ ६ ॥ चौमासो चाहूँ सास्तो जौ, काई भव जौव बसो जिन धर्म ॥ चे० ॥ मुनि ठंडीरामजी बताव्यो जौ, काई असल धर्म नो मर्म ॥ सु० ॥ ७॥ उगणौसै छेयासी समै जौ, काई माघ मास शुक्ल मझार ॥ चे० ॥ टोकू तोलू इम विनवे जो, काई निज मुख बार हजार ॥ सु० ॥८॥
॥ ढाल ४ थी॥
(उमादे भटियाणी की एदेशी) पहलौ तो सुमिरूं हो ऋषभादिक महावौर ने, कांई बरते जय जयकार। गुण ओलखने गावे हो । सुख पावे दुःख दूरा टले, कांई नाम लिया निस्तार ॥ १ ॥ भिक्षु गणि सुखकारी हो, गुणधारी मुरधर देखें। काई ग्राम कंटालियो जान, सूत्र सिद्धान्त वांच्या हो॥ रस खांच्या संयम पालवा, कांई गुण रतना की खान
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( ३२ ) ॥२॥ तमु अष्टम पट काल स्वामी हो, शिवगामी साहेब शोभता, कांई महा गुणां रौ खान। साध सतियां में दीपे हो मन मोहवा, भवियण जौव ने कांई तपे जानु भान ॥३॥ ठंडीरामजी खामी हो विराज्या, उदाशहर में, कांई भिन २ दिया रे समझाय। कई भाया. वायां नहीं आता हो आलस्य संकोच , काई माय नम्या तसु पाय । ४ । बागी सुण हरषाया हो ते समकित लौधौ केई जना, काई होयो घणा उपगार। कई श्रावक रा ब्रत लौधा हो ते कौधा त्याग, वैराग स्यं कोई जान्यो जिन धर्म सार ॥ ५ ॥ भिक्ष गण में भारी हो गुणधारो, साध ने साध्वी कांई पण्डित चतुर सुजाण । उत्तम २ कुल का हो गुणवन्त आजा में रहे, काई लेवा सुख नी खान ॥ ६ ॥ कार्तिक वदी चवदश हो, साल छौयासौ को जानिये। कई उदासर मझार, टीकू तोल गुगा गावे हो ॥ मुख पायो माप प्रसाद थी, काई सेवा करो नर नार ॥ ७॥
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श्री जयाचार्य कृतभ्रम विध्वंसन की हुण्डी। .
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मिथ्यात्वि क्रियाधिकार
१ बाल तपस्वी ने सुपाव दान, दया, शौलादि करो मोक्षमार्ग नों देश की आराधक लायो।
(साख सूत्र भगवती श० ८ उ० १०) २ प्रथम गुगठाणा नो धणी सुमुख नाम गाथापति,
सुदत्त नामा अणगार ने सुपात्र दान देई परित संसार करौ मनुष्य नो भाउषो बांध्यो। .
(साख सूत्र सुखविपाक अ०१) ३ मेघकुमार को जोव मिथ्याती थको हाथी के भव में सुसला रौ दया पाली परित संसार कौधो।
(साख सूत्र ज्ञाता अ०१) ४ गोशाला नो श्रावक सकडालपुन, भगवान ने विण प्रदक्षिणा देई वंदना कीधी।
(उपाशक दशांग अ०७) ५ मिथ्याती ने भली करणी लेखै सुब्रतो कयो छ।
(साख सूत्र उत्तराध्ययन अ०७ गा० २०)
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( ३४ ) ६ क्रियावादी सस्यग्दृष्टि (मनुष्य तिर्यंच) एक वैमा. णिक टाल और आऊषो न बांधै।
साख सूत्र भगवती ३० उ० १) ७ मिथ्याती मास २ खमण तप करै तथा सुई नी
अग्र पै आवै तेतलाज अन्न नो पारणो करै, पिण सम्यगदृष्टि ना चारित्र धर्म नौ सोलमो कला पिण नावै तेहनो न्याय।
(उत्तराध्ययन अ० ६ गा० ४४) ८ मिथ्याती मास २ खमण तप करे, पिण माया थी । अनन्त संसार कले।
(सूयगडांग श्रुतस्कन्ध १ अ० २ उ० १ गा० ६) द जीव अजीव जागे नहीं तेहना पच्चखाण दुपच्चखाग कन्या तेहनो न्याय ।
(भगवती श० ७ उ०२) १० भगवत दौना लियां पहलौ, २ वर्ष भामा
(अधिका) घर में विरक्त पणे रह्या तथा काचो पाणी न भोगव्यो।
(प्रथम आचारान अ० ( उ० १ गा० ११) ११ ज तत्त्व ना अजाण मिथ्यातो, त्यांरो अशुद्ध प्राक्रस
के ते. संसार नो कारगा छ। मिण निर्मरा नो कारण नथी (पिण शुद्ध प्राक्रम तो निरा
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नोहिज कारण है, संसार नो कारण नथौ ।
( सुयगडाङ्ग श्रु०.१ अ० ८गा० २३ ) (क) सम्यग्दृष्टि नो शुद्ध प्राक्रम है, ते सर्व निर्जरा नो कारणं पिणं संसार नो कारण नथी (पिंग अशुद्ध प्राक्रम तो संसार नोहि कारण, निर्जरा नो कारण नथी ।
( सूयगडांङ्ग श्रु० १ ० ८गा० २४ ) १२ भगवत दौख्या लेतां इम को आज थौ सर्वथा प्रकारे मोने ( मुझ ने ) पाप करवो कल्पे नहीं । इम कही सामयिक चारित चादयो ।
( अचाराङ्ग श्रु० २ अ० १५ )
१३ एक बेला रा कर्म बाकी रह्यां चनुतर विमाण में जाई उपजे ।
( भगवती श० १४ उ० ७ )
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१४ प्रथम गुणस्थान नौ शुद्ध करणो है, ते आज्ञा मांय
है | तेहनो न्याय |
१५ प्रथम गुणस्थान ने निर्वद्य कर्म नो क्षयोपशम कह्यो ।
( समवायांग समवाय १४ )
१६ अप्रमादौ साधु ने अणारम्भी कह्या ।
( भगवती श० १३० १ )
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( ३६ ) १७ असोच्चाकेवली अधिकारी इम कह्यो-तपस्यादिक थो समदृष्ट पामै ।
(भगवती श० ६ उ० ३१) १८ सूरियाद ना अभिबोगिया देवता भगवान ने वाद्यां
तिवार भगवान कयो-ए वन्दना रुम तुम्हारो पूराणो आचार छै १ ए तुम्हारो जीत प्राचार छै २ ए तुम्हारो कार्य छै ३ ए वंदना करवा योग्य छै ४ ए तुम्हारो धाचरण छै ५ एवंदना नौ म्हारी भाता है।
(रायप्रसेणी देवताधिकार) १६ खन्धक सन्यासी, गोतम ने पूछो, हे गोतम !
तुम्हारा धर्माचार्य महावीर ने वांदां यावत् सेवा करां। तिवारे गोतम कह्यो, हे देवानुप्रिय ! जिम्म सुख होवें तिम करो मिण विलम्ब मत करो।
(भगवती श० २ उ०१) (क) दीक्षा नौ श्राजा पर भगवत पार्श्वनाथ 'अहं मुहं पाठ कह्यो।
(पुप्फ चूलिया) २० भगवत श्री महावीर, खन्धक ने पडिमा वहवानी पाना दीधी।
(भगवती २०२3.10
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( ३७ ) २१ तामली तापसनी अनित्य चिन्तवना ।
(भगवती श० ३ उ०१) २२ सोमल ऋषिनी शुद्ध चिन्तवना ।
(पुप्फयोपांग अ०३) २३ छद्मस्थ भगवान श्रीमहावीर नी अनित्य चिन्तवना।
. .. (भगवती श० १५) २४ अनित्य चिन्तवना ने धर्म ध्यान को भेद कह्यो।
(उववाई) २५ च्चार प्रकार देवायु बांधै-सराग संजम पालो १
श्रावक पणो पालो २ बाल तप करी ३ अकाम . निर्जरा करौ ४ तथा च्यार प्रकारे मनुष्यायु
बांध-प्रकृति भद्रिक १ प्रहाति बिनीत २ दया परिणाम ३ अमत्सर भाव ।
(भगवती श० ८ उ०६) २६ गोशाले के शिष्यां के च्यार प्रकार नो तप कह्यो
उग्र तप १ घोर तप २ रस परित्याग ३ नोझ्या इन्द्री वश कौधौ।
(ठाणांगठाणे ४ उ०२) २७ अन्यदर्शणी पिण सत्य बघन मे आदयो। '
(प्रश्न व्याकरण संवरद्वार २) २८ वाण व्यन्तर ना देवता देवी बनखण्ड ने विषे वैसे, . • सूबै जाव क्रीड़ा करै। पूर्व भवे भला प्राकाम
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३८ )
फोडव्या तेहना फल भोगवै ।
( जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति )
२८ मिथ्याती प्रकृति भद्रादि गुण थो वाणव्यन्तर
देवता थाय ।
( उववोई प्रश्नं ७ )
दानाऽधिकाः ।
असंयत ने दोधां पुन्य पाप को न्याय । २ आगान्द श्रावक इह विधि श्रभिग्रह लीधो-जे आज थको अन्य तीघ ने अन्य तीर्थी ना देव ने तथा अन्य तीथों ना ग्रह्या अरिहन्त ना चैत्य साधु भ्रष्ट घया । ए तीना प्रति वांटू' नहीं, नमस्कार करूं नहीं, शनादिक देऊ' नहीं, देवाज' नहीं, बिना बतलायां एक बार तथा घणी वार बोलाऊ' नहीं, तथा अशनादिक च्यार चाहार देऊ' नहीं । अनेरा पास थी दिराऊ नहीं । पिग एतलो आगार -- राजा ने आदेशे आगार १ घणा कुटुम्व ने समुवाय ना आदेश यागार ? कोई एक वलवन्त ने परवश पणे आगार ३ देवता ने परवश
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आगार : कुटुम्ब में बडेरो ते गुरु कहिये
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तेहने आदेशे आगार ५: अटवी कान्तार ने विष
भागार ६ ए छव छण्डौ आगार राख्या तो पोता ' रौं कचाई जागी ने राख्या। "
(उपाशक दशांग अ० १) ३ तथा रूप जे असंयती ने फासू अफासू सूझतो - असूझतो अशनादिक दोधां एकान्त पाप निर्जरा,
नथी।
(भगवती श० ८ उ०६) ४ जे साधु कष्ट उपना एम विचारै। जे अरिहन्त
भगवन्त निरोगी काया ना धणी, पोता ना कर्म , - खपावा ने उदेरी, ने तप करै। तो हू लोच ब्रह्म
घर्यादिक अनेक रोगादिक नौ वेदना, किम न सहू। एतले मुझ-ने वेदना सम भावे. न सहतां, एकान्त पाप कर्म हुवै तो वेदना समभावे सहतां, एकान्त निर्जरा हुवै।
(ठाणांगठाणे ४०३) ५ साधु नौ हेला निन्दा करतो अशनादि देवैः तिहां “पडिलाभित्ता" माठ कह्यो।
(भगवती श० ५ उ०६) (क) तथा साधु ने वंदना नमस्कार करतो थको
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(४०) अशनादिक देवै तिहां पिण 'पंडिलाभित्ता" पाठ कह्यो।
(भगवती श० ५ उ०६) ६ पोट्टिला आर्या महासती ने अशनादिक दौधा तिहां “पडिलाभे" पाठ कह्यो। ते माटे “पडिलाभे" नाम देवा नों छै पिण साधु असाधु जाणवा रो नहौं।
(शाता अध्ययन १४) ७ साध ने अशनादिक वहिगवै तिहां “दलएजा" पाठ कह्यो छै। ते माटे "दलएन्जा" कहो भावे "पडिलाभेज्जा" कहो दोनों एक अर्थ छै।
(आवारांग श्रु० २ ० १ उ००) ८ सुदर्शन सेठ शुकदेव सन्यासी ने अशनादिक श्राम्यो तिहां “पडिलाभमाणे” पाठ कह्यो।
(माता अ०५) ८ 'पडिलाभ' नाम देवा नोहिज छ।
(स्वगडांग शु० २ ० ५ गा०३३) १० आई मुनि ने विप्रां कह्यो-जो वे हजार कहता
दो हजार ब्राह्मण जिमावै ते महा पुन्य स्कन्ध उपार्जी देवता हुई। एहवो हमारे वेद में कयो है। तिवारै आई मुनि वोल्या, हे विनों ! ने
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मांस ना टवी घर २ ने विषै मार्जार नौ परै भ्रमण ... करणहार एहवा बे हजार कुपात्र ब्राह्मणां ने नित्य
जिमा. ते जिमालनहार पुरुष ते ब्राह्मणां सहित बहु वेदना छै जेहने विषै एहवी महा असह्य वेदना युक्त नरक ने विषै जाई। अने दया रूप प्रधान धर्म नी निन्दाना करणहार हिंसादिक पञ्च आसव नौ प्रशंसाना करणहार एहबो जो एक मिण दुःशौलवन्त निर्ब ती ब्राह्मण जिमाई ते महा अन्धकारयुक्त नरक में जाई। तो जे एहवा घणा कुपात्र ब्राह्मणा ने जिमाड़े तेहनो स्यूँ कहियो। अने तमें कहो छो जे जिमाड़णहार देवता हुई तो हमें कहां छशं जे एहवा दातार ने असुरादिक अधम देवता नौ पिण प्राप्ति नहीं, तो. उत्तम वैमाणिक देवतानी गति नी अाशा एकान्त निराशा छ।
(सूयगडाँग श्रु० २ अ० ६ गा० ४३, ४४, ४५) ११ भग्गु ने पुत्रां कह्यो, वेद भण्यां वाण शरण न हुवै
तथा ब्राह्मण जिमायां तमतमा जाय । ( तमतमा ते अंधारा से अधारो) एहवी नर्क ।
(उत्तराध्ययन अ० १४ गा० १२) १२ श्रावक पिण विप्र जिमा. तेहनो न्याय चार प्रकार नर्कायु वांधे तिणेकरी अोलखायो।।
(भगवती शतक ८ उ०६)
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( ४२ ) (क) बलि श्रावक पिण विप्र जिमा तिण ऊपर
वालमर्ण थी अनंता नर्क ना भाव । तेहनो न्याय।
(भगवती श०२ उ०१) १३ जे सावद्य दान प्रशंसै तेहने छःककाय नो वध नो
वंधणहार कह्यो। अने वर्तमान काले निषेधे त्यांने अन्तराय नो पाडणहार कह्यो। ते माटे . साधु ने वर्तमान में मौन राखिवे कही।
(सूयगडांग श्रु० १ अ० ११ गा० २०, २१) १४ दान देवै लेबै, इसो वर्तमान देखी गुण दूषण · कहणो नहीं।
(लयगडाँग श्रु० २ ० ५ गा० ३३) १५ नन्दण मणिहारो दानशालादिक नो घणो प्रारम्भ करी मरौने पोतारी वावड़ी मेंज डेडको थयो।
(माता अ०१३) १६ भगवान दश प्रकार ना दान प्ररुप्या। (सावद्य निर्वद्य भोलखणा)
(ठाणाश टाणे १०) १७ दश प्रकार नो धर्म कयो (मायद्य निर्वद्य श्रोल
खणा) अने दश प्रकार ना स्थविर कया लौकिक लोकोत्तर विडं जाणवा।
(टाणाटाणे १०)
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( ४३ ) १८ नव विधि पुण्य कह्यो (सावध निवद्य अोलखणा)
(ठाणाङ्ग ठाणे ६) १६ चार प्रकार ना मेह तिमहिन चार प्रकार ना पुरुष, कुपात्र ने कुक्षेत्र जिसा कह्या।
(ठाणाङ्ग ठाणे ४ उ०४) २० शकडालपुत्र गोशाला प्रते कह्यो-हे गोशाला ।
तं मांहरा धर्माचार्य श्री महावीर ना गुणाकीर्तन कया। ते माटे देऊ छु तुमने पौट, फलग, सज्यादि। पिण धर्म तप ने अर्थे नहौं ।
(उपाशकदशा अ० ७) २१ मृगालोढा प्रति देखने गौतम, भगवान ने पूछ्यो
हे भगवन्त ! दूण पूर्व भवे कांई कुपात्र दान दीधा ? कांई कुशौलादि सेव्या ? अने काई मांसादि भोगव्या ? तेहना फल ए नर्क समान दुःख भोगवै छै। तो जोवोनी कुपात्र दान ने चौड़े भारी कुकर्म कह्यो।
(दुःखविपाक अ०१) २२ ब्राह्मणां ने पापकारी क्षेत्र कह्या ।
(उत्तराध्ययन अ० १२ गा०१४) २३ पन्द्रह कर्मदान ने व्यापार कह्या।
(उपाशंकदशा अ० १)
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( ४४ ) २४ भात पाणी थौ पोष्यां धर्माधर्म नो न्याय ।
(उपाशकदशा अ०१) २५ तंगिया नगरी ना श्रावकां नो उघाड़ा वारणा रो न्याय।
(भगवती श० २ ० ५ टीका में) २६ श्रावक ना त्याग ते ब्रत अने अागार ते अव्रत ।
(उववाई प्रश्न २० तथा सूयगडांग श्रु० २ अ० २) २७ दश प्रकार ना शस्त्र कह्या तिगसें अब्रतने भाव शस्त्र कह्यो।
(टाणाङ्ग ठाणे १०) २८ जे श्रावक देशथको निवौं भने देशयको पञ्चखाण . कौधा तिणे करी देवता थाय। पिण अव्रत थी देवता न हुवै।
(भगवती श०१ उ०८) २६ साधु ने सामायक में वहिरायां सामायक न भांगे तहनो न्वाय।
(भगवती श० ८ उ०५) ३० श्रावक जिमावे तिगा ऊपर महावीर पार्श्वनाथ ना साधु नो न्याय मिले नहीं।
(उत्तराध्ययन अ० २३ गा० १७) ३१ प्रमोच्चा केवली, अन्यलिंगी थकां पोते तो दीच्या
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३
न देव । पिण अनेरा पासे दीख्या लेवा नो उपदेश करै।
(भगवती श० १ उ० ३१) ३२ अभिग्रहधारी अने परिहार विशुद्ध चारित्रियो कारण पयां अनेरा साधु ने अशनादि देव ।
(वृहत्कल्प उ० ४ बोल २७) ३३ गृहस्थादिक ने देवो साधु संसार भ्रमण नो हेतु जाणौ छोयो।
(सूयगडांग श्रु० १ ० ६ गा० २३) ३४ गृहस्थी ने दान दियां अने देतां ने अनुमोद्यां चौमासी प्रायश्चित कह्यो।
(निशीथ उ० १५ बोल ७४-७५) ३५ आणन्द ने संथारा में मिण गृहस्थ कह्यो।
(उपासकदशा अ०१) ३६ गृहस्थोनी व्यावच कियां, करायां, बलि अनुमोद्यां ___ २८ मो अणाचार कह्यो।
(दशवकालिक अ० ३ गा०६). ३७ इग्यारमी पडिमा में पिण प्रेम बंधण बूट्यो नयी।
(दशा श्रुतस्कन्ध अ०६) ३८ पडिमाधारी रे कल्प ऊपर अम्बड़ सन्यासी ना कल्प नो न्याय।
(उपवाई प्रश्न १४)
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( ४६ )
३८ अनेरा सन्यासौ नो कल्प |
( उववाई प्रश्न १२ )
४० वर्ण नाग नतुओ संग्राम में गयो तिहां एहवो अभिग्रह धायो–कल्यै मुझने जे पूर्वे हणै तेहने हणवो । जे न हौ तेहने न हणवो ।
( भगवती श० ७ उ० ६ )
४१ जे एकेक अन्यतीर्थों घको गृहस्थ श्रावक देश व्रते करौ प्रधान अने सर्व श्रावक यकौ साधु सर्व व्रते करो प्रधान । ४२ श्रावक नौ आत्मा अधिकरण कही है । श्रधिकरण ते छवकाय नो शस्त्र जाणवो ।
( उत्तराध्ययन अ० ५ गा० २० )
( भगवती श० ७ उ० १ )
(क) भरतजी को घोड़े ने ऋषि को उपमा दौधौ । तिमहिज श्रावक ने 'समगा भुया' को पि ते देशघकी उपमा नागवी ।
( जम्बू द्वीप प्रशति ) ४३ च्चार व्यापार कह्या - मन, वचन, काया और उपकरण । ए च्चारुं व्यापार सन्नी पंचेन्द्रियरे कया । ए च्चारुं भृंडा व्यापार मि १६ दण्डक सन्नौ पंचेन्द्रिय कच्चा । धने ए च्या भला व्यापार तो संवतो मनुष्यांरेडन कच्चा ।
( राणा राणं ४ ० १ )
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( ४७ ) अनुकम्पाऽधिकार १ असंयती जीवां रो जीवणो बांछणो घणे ठामे वयों
ते साख रूप बोल। २ पोताना कर्म खपावा तथा अनेरा ( आर्य क्षेत्र ना
मनुष्य ) ने तारिवा निमित भगवान धर्म कहै। मिण असंयती जीवा ने बचावो अर्थे नहीं।
(सूयगडाँग श्रु० २ अ० ६ गा० १७-१८) ३ पोताना पाप टालवा भणी नेमनाथ भगवान पाछा फिया।
(उत्तराध्ययन अ० २२ गा० १८-१६) ४ मेघकुमार नो जीव हाथी ने भवे सुसलानौ अनुकम्या कोधो, सुसला ने चार नामे करौ वोलायो।
(ज्ञाता अ०१) (क) तथा मढाई निग्रन्थ ने छः नामे करी बोलायो।
(भगवतो श० २ उ०१) रौ नो कल्प 'वहाय गहाय' पाठ नो अर्थ।
(दशाश्रुतस्कन्ध अ०७) ६ रागद्वेष प्राणी 'मार तथा मत मार' इम कहिवो ' वा ।
(सूयगडांग श्रु. २ अ०५ गा० ३०) ७ गृहस्थां ने मांहो मांही लड़ता देखी-एहने हण
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तथा एहने मत हग एहवो मन में पिण विचार न करै।
(आवारांग श्रु० २ अ० २ उ०१) ८ गृहस्थी मे, साधु ‘अग्नि प्रज्वाल तथा बुझाव' इम
: न कहै।
(आवाराँग श्रु० २ ० २ ३०१) ८ दशं प्रकार नौ बांछा कही।
(ठाणांग ठाणे १०) १० असंयम जीवितव्य वांछणो वर्ची ।
(सूयगडाङ्ग श्रु० १ अ० १० गा० २४ ) ११ असंयम जीवणो मरणो वांछणो वौँ ।
(सूयगडाङ्ग श्रु० १ ० १३ गा० २३ ) १२ साधु असंयम जीवितव्य ने पूठ देई विचरै।
(सूयगडांग श्रु०१ अ० १५ गा० १०) १३ असंयम जौवणो वांछणो वौँ ।
(सूयगडांग श्रु० १ ३०३ ३०४ गा० १५) १४ असंयम जौवगो वां तिगाने वाल अज्ञानी कह्यो।
(सूयगडांग थु० १ ० ५ उ० १ गा० ३) १५ साधु भामगो आत्मा ने अमंयम जीवितव्य को अर्थी न करे।
(न्यूयगडाँग ध्रु० १ ० १० गा०३) ११ असंयम जीवगो वांकगो वज्यों।
(मयगडा०१० २.३०२ गा )
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( ४६ ) १७ संयम जीवितव्य बधारवो कह्यो।
(उत्तराध्ययन अ०४ उ०७) १८, संयम जीवितव्य दुर्लभ कह्यो।
डॉग श्रु० १ ० २ उ०२ गा०१) १६ मिथिला नगरौ बलती देखी, नमौराजर्षि साहमो
न जोयो। बलि कह्यो म्हारै राग द्वेष करवा माटै बाहलो दुबाहलो एक मिण नहौं । ए मिथिलापुरी बलतां थकां मांहगे किञ्चित मात्र पिण बलै नथी। मैं तो ( संयम में सुख से जीवं अने सुख से बसं छं।
(उत्तराध्ययन अ० ६ गा० १२-१३-१४-१५) २० देवता, मनुष्य, तियंञ्च ए तीनां नं माहों मांही
विग्रह देखौ अमुक नौ जय होवो अने अमुक नौ अजय होवो एहवो बचन साधु ने बोलणो नहौं ।
(दशवैकालिक अ० ७ गा० ५०) २१ वायरो, वर्षा, सौत, तावड़ो, राज विरोध रहित,
सुभिक्ष पणो, उपद्रव रहित पणो, ए सात बोल हुवो इम साधु ने कहिवो नहौं ।
(दशकालिक अ०७ गा० ५१) २२ समुद्रपाली चोर ने मरतो देखी वैराग्य मामी
चारित्र लोधो पिण चोरनी अनुकम्पा करि छोडायो नधी।
( उत्तराध्ययन अ० २१ गा०६)
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( ५० ) २३ जे साधु पोतानी अनुकम्पा करै पिण अनेरा नौ अनुकम्पा न करें।
(ठाणांग ठाणे ४ उ०४) २४ अन्यतीर्थी तथा गृहस्थ सार्ग भूलाने साधु मार्ग ____बतावै तो चौमासी प्रायश्चित पावै ।
(निशीथ उ० १३ बोल २५) २५ हिंसादिक अकार्य करता देखौ, धर्मउपदेश देई
समझावणो तथा अणबोल्यो रहे तथा उठी एकान्त जागवो कह्यो।
(ठाणांग ठा० ३ उ०३) २६ साधु अनेरा जीवां ने भय उपजावै, तो प्रायश्चित कह्यो।
(निशीथ उ० ११ बोल ६४) २७ रगृहस्थ नी रक्षा निमित्त मन्त्रादिक कियां बलिअनुमोद्यां चौमासौ प्रायश्चित कह्यो ।
(निशीथ उ० १३ बोल १४) २८ चुलगी पिया, पोपा में माता ने वचायिवा उठ्यो तो व्रत नियम भांग्या कह्या।
(उपाशक दशा अ०३) २६ नावा में पाणी आवतो देखी साधु ने गृहस्थ प्रते बतायगो नहीं।
(अनागा श्रु० २० १३० १)
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( ५१ ) ३० साधु अनुकम्पा आणी बस जीव ने बांधै बंधावै
तथा बांधते प्रते भलो जाणै तथा बंधिया जीवां ने अनुकम्पा आणी छोड़े, छुड़ावै छोड़ते ने भलो जाणे तो प्रायश्चित कह्यो।
(निशीथ उ० १२ बोल १-२) ३१ साधु कुतूहल निमित्त त्रस जौव ने बांधै बंधावै ___ अने छोड़े छुड़ावै तो प्रायश्चित कह्यो।
(निशीथ उ० १७ बोल १-२) ३२ जे साधु पच्चखाण भांगै अने भांगता ने अनुमोदे तो दगड कह्यो।
(निशीथ उ०१२ बाल ३-४ ३३ रहस्य साधु नौ अनुकम्पा आणी तैलादि मर्दन ___ करै तिहां कोलुण वडियाए' पाठ कह्यो ।
(आचाराँग श्रु० २ अ० २ ३०१) ३४ हरिणगवेषी सुलसां नो अनुकम्पा कौधौ।
(अन्तगढ़ वर्ग ३ अ०८) ३५ कृष्णजी डोकरानी अनुकम्पा करी ईट उपाड़ी।
(अन्तगढ़ वर्ग ३ अ०८) ३६ हरिकेशी नी अनुकम्पा आणी यक्षे विप्रां ने अंधा पाया।
(उत्तराध्ययन अ० १२ गा० ८ से २५ ताई )
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३७ धारणी राणौ गर्भनी अनुकम्पा आणी मन गमता अशनादिक खाया।
(शाता अ०१) ३८ अभयकुमार नो अनुकम्पा आणी देवता मेह बरसायो।
(शाता अ०१) ३८ जिन ऋषि करुणा आणौ रयणा देवी रे साहमो जोयो।
(शाता अ०६) ४० प्रथम प्रास्रव हार ने करुणा रहित कह्यो ।
(प्रश्न व्याकरण य०१) ४१ करुणा सहित जिन ऋषि ने रयगा देवी दया रहित परिगामे करि हण्यो।
(शाता अ०६) ४२ सूर्याभ देवतारी नाटक रूप भक्ति कही।
(राय प्रसेणी) ४३ यने छात्रों ने अंधा पाडया ते हरियोशीनी व्यावच
कही।
(उत्तराध्ययन अ०२२ गा० ३२.) ४४ भगवान शीतल तेज लधि कगै गोशाले ने बचायो ___ तिहां 'अणुकम्पशट्टाए' पाठ करो।
(भगवती ग १५)
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( ५३ ) लब्धि अधिकार
१ वैक्रिय तथा तेजस लब्धि फोड्यां जघन्य ३ उत्कृष्टौ ५ क्रिया कहौ।
"(पनवणा पद ३६) २ आहारिक लब्धि फोद्यां जघन्य ३ उत्कृष्टौ ५ क्रिया कही।
(पन्नवणा पद ३६) ३ श्राहारिक लब्धि फोड़े तिणने प्रमाद आश्री अधिकरण कयो।
( भगवती श०१६ उ०१) ४ अंघाचारण अथवा विद्याचारण लब्धि फोड़ी बिना आलोयां मरै, तो विराधक कह्यो ।
(भगवती श० २० उ०६) ५ वैक्रिय लब्धि फोड़े तिणने मायौ कह्यो भने आलोयां विना मरै, तो विराधक कह्यो।
(भगवती श० ३ उ०४) ६ सात प्रकारे छमस्थ तथा सात प्रकार केवली जागोजे।
(ठाणांग ठाणे ७) ७ अम्बड सन्यासी वेक्रिय लब्धि फोड़ी, सौ घरां
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( ५४ )
पारणो कौधो ते लोकां ने विस्मय उपजायवा
भणी ।
( उववाई प्रश्न १४ )
८ साधु अमेरा ने विस्मय उपजावै तो चौमासी प्राय
चित को ।
( निशीथ उ०११ )
प्रायश्चिताऽधिकारः
१ सौही अणगार मोटे २ शब्द रोयो ।
( भगवती श० १५)
२ ते साधु पाणी में पाली तराई ।
( भगवती श० ५० ४ )
३ रहनेमी, राजमती ने विषय रूप वचन वोल्यो । ( उत्तराध्ययन अ० २२ गा० ३८ )
४ धर्मघोषना साधां नागश्री ब्राह्मणी ने बाजार में
हेली निन्दी |
( जाता अ० १६ )
५ सेज़क ऋषि ने उसनो पासयो को
( जाना अ० ५ )
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६ गोशाला नो जीव विमलवाहन राजा ने सुमंगल __नामे अणगार, तेज लब्धि करौ हणस्ये ।
(भगवती श० १५) ७ खंधक नामे अणगार संथारो कीधो तिहां 'बालोइय पडिक्षन्ते' पाठ कह्यो।
(भगवती श० २ उ०१) ८ तिसक मुनिने छेहडै तिहां 'आलोइय पडिकन्ते' पाठ कह्यो।
(भगवती श० ३ उ०१) ६ कार्तिक सेठने छेहडै तिहां 'आलोइय पडिकन्ते' पाठ कयो।
(भगवती श० १८ उ० २) १० कषाय कुशौल नियण्ठा नो वर्णन।
(भगवती श० २५ उ० ६) ११ दृष्टिवाद नो धणी पिण वचन खलावै ।
(दशकालिक अ० ८ गा०५०) १२ अनुत्तर विमाण ना देवता उदौर्ण मोह नयौ, चने क्षौण मोह नधी, उपशांत मोह छै।
(भगवती श०५ उ०४) १३ हाथौ अने कथा के अपञ्चखाण की क्रिया समान कही।
(भगवती श० ७ उ०८)
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१४ सर्व भवी जीव मोक्ष जास्ये ।
. (भगवती श० १२ उ०२) १५ पुगलास्तिकाय में ८ स्पर्श कहा।
(भगवती श० १२ उ०५)
गोशालाऽधिकार १ भगवन्त गौतम ने कह्यो-हे गौतम ! गोशाले
मोने कह्यो तुम्हें मांहरा धर्माचार्य अने हं आपरो धर्मान्तेवासी शिष्य । तिवारे में अङ्गीकार कोधं ।
(भगवती श०१५) २ सर्वानुभूति, सुनक्षत्र मुनि गोशाला ने कह्यो
हे गोशाला ! तोने भगवान मंयो। तोने भगवान प्रवर्या दौधौ । तोने शिष्य कियो। तोने सिखायो अने तोने बहुश्रुति कियो। तं भगवान सँइज मिथ्यात्व पडिवज छ ?
(भगवती श०१५) ३ भगवान पिण कह्यो-है गोशाला ! में तोने प्रवर्या दोधी।
(भगवती ०१५) ४ गोशाला ने कुशिष्य कह्यो।
(मगवती श०५)
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( ५७ ) गुगुणाकर्णनाऽधिकारः ।
१ गणधरां भगवान ना गुण किया।
(आचाराँग श्रु० १ अ०६ उ०४ गाथा ८) २ भगवान, साधा नां अनेक गुण किया।
(उववाई प्रश्न २१) ३ कोणक ने माता पिता नो विनीत कट्यो ।
(उववाई) ४ श्रावका ने धर्म ना करगाहार कह्या ।
(उववाई प्रश्न २०) ५ गौतमा ना गुण कह्या ।
(भगवती श०१ उ०१)
-
।
হুজ্জাতক্ষিন্দাহঃ +
१ छद्मस्थ तीर्थङ्कर में कषाय कुशौल नियण्ठो कहो।
(भगवती श० २५ उ०६ २ कषाय कुशौल नियण्ठा में छः लेश्या कही।
(भगवती श०२५ १०६) ३ सामायक चारित्र छेदोस्थापनीय चारित्र में छः लेण्या पावै।
(भगवती श० २५ उ०७)
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( ५८ )
४ छ: लेग्या ना लक्षण |
( आवश्यक अ० ४ )
५ च्चार ज्ञानवाला साधु में पिग कृष्ण लेश्या कहौ
है ।
( पनवणा पद १७ उ० ३ )
६ कृष्ण, नौल अने कापोत लेश्या में च्यार ज्ञान नौ भजना कही ।
( भगवती श० ८ उ०२ )
७ कृष्णादिक तौन लेश्या प्रमादी साधु में हुवे ।
( भगवती श० १ उ० १ )
1
८ तेजू पद्म लेश्या सरागो में हुवै ।
( भगवती श० १ उ० २ )
2 संयती में पिण कृष्ण लेश्या हुवै ।
( पत्रवणा पद १७००१ )
वैयावृत्ति अधिकारा
१ . यते छात्रा ने ऊंधा पाड्या ते हरकेशी नौ व्यावच
कही ।
( उत्तराध्ययन अ० १२ गा० ३२ )
२ सूर्याभ देव नौ नाटक रूप भक्ति कही ।
( राय प्रसेणी )
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३ भगवान ना अङ्गोपाङ्ग ना हाड भक्ति' करी देवता ग्रहण करै।
(जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति) ४ बीस बोल करी तीर्थङ्कर गौत्र बंधे।
(शाता अ०८) , ५ साता दियां साता हुवै इम कहै ते आर्य मार्ग थी
अलगो। समाधि भार्ग थौ न्यारो। जिन धर्म री हेलगा रो करणहार। अल्प सुखां रे अर्थे घणा सुखां रो हारगाहार । ए असल्य पक्ष मण छोडवे करी मोक्ष नहीं। लोह बाणिया नौ परै घगो झूरसौ।
(सूयगडांग श्रु०१ अ० ३ ०४ गा०६-७) ६ पांच स्थानके करौ श्रमण निग्रन्थ ने महा निर्जरा
हुवै। तिहां कुल गण संघ साधर्मों साधु ने काद्या।। .
(टाणांग ठाणे ५ उ०१) ७ दश प्रकार नौ व्यावच साधुरैज कही।
( ठाणांग ठाणे १०) ८ पुनः दश प्रकार नी व्यावत्र साधुरैइज कही।
(उचचाई) ६ साधु ना समुदाय ने गण संघ कह्यो।
(भगवती श० ८ २०८)
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१० सावध व्यावच पर भिक्षुगणिराज कृत वार्तिका
कहै है। ११ साधु नौ अर्श छेदै तिण वैद्य ने क्रिया कही।
(भगवती श० १६ उ०३) १२ साधु अन्य तीर्थी तथा गृहस्थ पास अर्श छेदावै
तथा कोई अनेरा साधुनी अर्श छेदतां अनुमोदै तो मासिक प्रायश्चित आवै।
(निशीथ उ० १५ बोल ३१) १३ साधु रो गमड़ो टहस्थ छेदै तो साधु ने मने करी
अनुमोदनी नहौं तथा वचन अने काया करी करावै नहीं।
(आवारांग श्रु०२ अ० १३)
विनयाऽधिकार।
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-
१ दोय प्रकार नो विनय सूल धर्म कह्यो साधु ना
पञ्च महाव्रत ते साधु नो विनवलन्त धर्म अने श्रावक ना १२ व्रत तथा ११ पडिमा ते श्रावक नो यिनयलूल धर्म।
(काना अ०५)
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२ पांडुराजा अने पांच पाण्डव माता कुन्तां सहित नारद से निप्रदक्षिणा देई वन्दना नमस्कार कियो। घगी विनय कियो।
____ (ज्ञाता अ० १६) ३ जिम पांडु नारद नो विनय कियो तिमहिज कृष्ण पिण नारद नो विनय कियो।
(ज्ञाता २०१६) ४ साधु गृहस्थादिक ने वांदतो थको अशनादिक जाचे नहौं।
(दशवकालिक अ० ५ उ०२ गा० २६) ५ अम्बड़ ने चेला धर्माचार्य कही नमोत्थुणं गुण्यो ।
(उचवाई अ० १३) ६ धर्माचार्य साधु ने कह्या।
(राय प्रसेणी) ७ भरत चक्रवर्ती चक्र रत्न ने नमस्कार कियो।
(जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति) ८ तीर्थकर जन्म्या ते द्रव्य तीर्थङ्कर ने इन्द्र नमोत्थुणं गुण नमस्कार करै।
(जम्बूद्वीप प्रशप्ति) ६ इन्द्र एहवं कह्यो जे तीर्थकर नौ जन्म महिमा
कर ते म्हारो जीत आचार छै मिण ये महिमा धर्म हेतु करू इम नथौ कह्यो।
(जम्बूद्वीप प्राप्ति)
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D
१० तीर्थकर नौ माताने इन्द्र प्रदक्षिणा देई नमस्कार करै।
(जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति) ११ अरिहन्तादिक पांच पदांनेज नमस्कार करवी । कयो।
(चन्द्र प्रज्ञप्ति गा०२) १२ सर्वानुभूति अगागार गोशाले ने श्रमण माहण नो हिज विनय करवा कह्यो।
( भगवती श०१५) १३ अठारह पाप सूनिवर्ते तेहने माहगा कह्यो।
(स्थगडोंग श्रु० ६ अ० १६) १४ माहगा नाम साधुरोहिज कल्यो ।
(सूयगडांग श्रु० २१०१) १५ वंस स्थावर त्रिविधे २ न हगौ तेहने साहा कह्यो तथा और भी अनेक लक्षणा माहगाना बताया।
(उत्तराध्ययन अ० २५ गा० १६ से २६ ताई ) १६ समग माहण मर्व अतिथि नो नाम कन्यो।
(अनुयोग द्वार.) १७ श्रावक ने एतला नामे कगै बोलागो कह्यो---
हे श्रावक ! हे उपाशक ! हे धार्मिक ! है धर्मप्रिय ! एहवा नामा करी वोलावगो कन्यो।
(अधाराङ्ग ०२ ० ४ ३० ।
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पुण्याधिकार
१ परलोक ने अर्थ तप नहीं करवो।
(दशवकालिक अ० ६ गा०४) - २ गाढ़ा पुण्य न करै तो मरणान्ते पश्चाताप करे।
(उत्तराध्ययन अ० १३ गा० २१) ३ पुण्यपद सांभली भरत चक्रवर्ती दीक्षा लोधी।
(उत्तराध्ययन अ० १८ गा० ३४) ४ अकृतपुण्य ना धणी धर्म सांभलौ प्रमाद करै ते संसार में भ्रमण करें।
(प्रश्न व्याकरण अ० ५) ५ यश नो हेतु तप संयम कह्यो।
(उत्तराध्ययन अ० ३ गा० १३) ६, आत्मा ने अयश अर्थात् असंयम करी जीव नरक में उपजे।
(भगवती श० ४१ उ०१) .७ नरक ना हेतु ने नरक कहौ।
(उत्तराध्ययन अ०६ गा०८) .८ मृग सरिसा अज्ञानी ने मृग कह्यो ।
(उत्तराध्ययन अ० १ गा०५)
-
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(
६४ )
आवाऽधिकारः ।
१ मञ्च आस्रव द्वार कया ।
CONTENTS AND MAINTAINED
(ठाणांग ठा० ५ तथा समवायाङ्ग स० ५ )
( क ) तथा मिथ्यादृष्टि ने अरूपी कही ।
( भगवती श० १२ उ० ५ )
'
२ पञ्च चासव ने कृष्णण लेश्या ना लक्षण कया । ( उत्तराध्ययन अ० ३४ गा० २१-२२ )
३ सम्यक् अने मिथ्यात्व ने जीव क्रिया कही । ( ठाणाँग ठा० २३०१ )
४ दश प्रकार नो मिथ्यात्व को ।
( ठाणांग ठाणे १० )
५ अठारह पाप में वर्ते तेहिज जौव नें तेहिज जीवात्मा कही ।
( भगवती श० १७ उ० २ )
६ जीव अजीव परिणामी ग दश २ भेद कहा ।
( ठाणांग ठा० १० )
७ कषाय, जोग, दर्शन ए आत्मा कहौ ।
( भगयती श० १२ उ० १० )
८ उदय निप्पन्न रा तेतीस वोलां ने जीव कच्चा ।
( अनुयोग द्वार )
८ उत्थानादिक ने प्ररूपी कया ।
( भगवती श० १२४०५ )
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( ६५ ) १० क्रोधादिक ने भाव संयोगी कथा।
( अनुयोग द्वार) ११ क्रोधादिक ने भाव लाभ कह्यो।
(अनुयोग द्वार) १२ अर्कुशल मनने रूंधवो कह्यो।
(उववाई) १३ माठा भाव थी जानाट्रिक खपै ।
(अनुयोग द्वार) १४ आखव ने, मिथ्या दर्शनादिक ने जीवरा परिणाम कह्या ।
(ठाणांग ठा०६)
खम्बराधिकार
१ पंच सम्बर द्वार प्ररुप्या ।
(टाणा ठा० ५ ० २ तथा समवायाङ्गस०५) २ जीव राजानादिक छव लक्षण का।
(उत्तराध्ययन अ० २८ गा6 ११-१२) ३ चारित्र ने जीव गुण परिणाम कह्या ।
(अनुयोग द्वार) ४ सम्बर ने आत्मा कही।
(भगवती श०१3०६)
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*
( ६६ )
५ अठारह पाप ना विरमण ने रूपी कह्यो ।
1.
I.
( भगवती श० १२ उ०५ )
६ अठारह पाप ना विरमण ने जीव द्रव्य कह्यो । ( भगवती श० १८ उ० ४ )
€
६
जीव भेदाऽधिकारः
;
१ विशिष्ट अवधि रहित ने अज्ञीभूत कह्यो ।
( पन्नवणा पद १५ उ० १ )
२ नन्हा वालक तथा बालिका ने असंजीभूत कह्या ।
( पनवणा पद ११ )
३ पाठ सूक्ष्म कह्या ।
( दशवेकालिक अ० ८गा० १५ )
४ तेउ वाउ मे तस कह्या ।
{
( जीवाभिगम प्रश्न १ )
५ सम्मूर्च्छिम मनुष्य ने पर्याप्ता अपर्याप्ता विहुं नामे
¿
करी बोलाव्यो ।
( अनुयोग द्वार )
६ असुर कुमार ने उपजती वेलां वे वेद कह्या ।
( भगवती श० १३ उ० २ )
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__ .
आज्ञाऽधिकार
१ वीतराग ना पग थको जौव मुवां ईर्यावहि क्रिया । कही। . .
(भगवती श० १८ ३०८) २. सम्यक् मानता ने असम्यक् मिण सम्यक् हुई।
(आचाराङ्ग श्रु० १ ० ५ उ०५) . (क) तीन उदक ना लेप लगावै तिगाने सबलो 1 दोष कह्यो।
(दशाश्रुतस्कन्ध अ० २) ३ पांच मोटी नदी एक मास में बे वार अथवा तीन __वार उतरवो कल्ये नहौं ।
(वृहत्कल्प उ०४) ४ साधु ने नदी उतरवो कह्यो।
(आचाराङ्ग श्रु० २ ० ३ ०२) ५ पाणी में डूबती थको साध्वो ने साधु बाहिर काटे । तो आज्ञा उलंधै नहीं।
(वृहत्कल्प ३०६) ६ रात्रि में सिझायदिक ने अर्थे बाहिर जावणी कल्प।
(बृहत्कल्प उ०१)
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( ६८ )
शीतल आहाराऽधिकारः ।
१ ठण्डी आहार भोगवणो को ।
२
( उत्तराध्ययन अ० ८गा० १२ )
भगवन्त ठण्डी आहार लीधो कह्यो ।
( आचाराङ्ग श्रु० १ अ० उ०४ )
३ धन्न अणगार न्हाखितो आहार लियो ।
( अनुत्तर उववाई ) ४ अरस निरस तथा शीतलादिक याहार भोगवो । साधु ने द्वेष न करिव ।
( प्रश्न व्याकरण अ० १० )
सूत्र
पटनाऽधिकाराः
१ साधुनेइज सूत्र भणवा रौ श्राज्ञा दोधी ।
( प्रश्न व्याकरण अ० ७ )
२ साधु सूत्र भी तिगा रो मर्यादा कही ।
व्यवहार उ० १० )
३ अन्य तोधों ने तथा गृहस्थी ने साधु सूल रूप बांचणी देवे तथा देता ने अनुसोदे तो
प्रायश्चित कह्यो ।
( निशोध उ२ २१ )
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{
( ६६ )
४ आचार्य उपाध्याय नौ अणदौधौ बांचणी ग्रहै, तो प्रायश्चित कह्यो ।
५ तीन जणा बांचणी देवा अयोग्य कया |
( ठाणाङ्ग ठा० ३ उ०४ )
६ श्रावकां ने अर्थ रा जाण कया ।
( निशीथ उ०१६ )
७ निग्रन्थ ना प्रवचन ने सिद्धान्त कथा |
( उववाई प्रश्न २० )
( सूयगडाँग श्रु० २ अ० २ ),
८ साधुनेइन शुद्ध धर्म ना प्ररूपणहार का ।
( सूयगडाङ्ग श्रु० १ अ० ११ गा० २४ ) 2 अभाजन ने सूत्र सिखावे त्याने अरिहन्त नी चाज्ञा
ना उलङ्घनहार कह्या ।
१० अर्ध ने पिण 'सूय धम्मे' को ।
( सूर्य प्रज्ञप्ति पादु० २० )
११ सूत्र याश्री तीन प्रत्यनीक का ।
( ठाणाङ्ग ठा० २३०१ )
( भगवती श० ८३०८ )
१२ पंचेन्द्रिय ना उपयोग ने श्रुत वह्यो ।
( पनवणा पद २३ उ०२ )
१३ भावश्रुत ना १० नाम पर्यायवाची कथा ।
( अनुयोग द्वार )
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( ७० ) निरवध कियाऽधिकार ।
...
.
१ अठारह पाप सं निवा कल्याणकारी कर्म बंधै।
... (भगवती श० ७ उ० १०) '३ वन्दना करता नौच गोत्र खपावै ।
(उत्तराध्ययन अ० २६ बोल १०) '३ धर्मकथा सू शुभ कर्म बन्धै ।
(उत्तराध्ययन २० २६ बोल २३) ४ व्यावच्च कियां तीर्थंकर गोत्र बंधे।
(उत्तराध्ययन अ० २६ बोल ४३) ५ तीन प्रकार शुभ दीर्घायु बंधै।
(भगवती श०५०६) ६ दश प्रकार कल्याणकारी कर्म बंधै।
(ठाणाङ्ग ठाणे १०) ७ अठारह पाप सेयां कर्कश वेदनीय कर्मे वंधै अने १८ पाप सूं निवा' अकर्कश वेदनीय कर्म बंधै ।
(भगवती श०७ उ०६) ८ वीस बोला करी तीर्घकर गोत्र वन्धे ।
(ज्ञाता अ०८) ६ प्राण, भूत, जोव, सत्व ने दुःख न दियां साता वेदनौ कर्म बन्धे ।
(भगवनी ०७१०१)
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७१ }
१० आठ कर्म निपजावा नौ करणी जुदौ २ कही ।
( भगवती श० ८ उ० ६ )
११ धर्म रुचि ङ्कणगार ने तुम्बो परठवा नी आज्ञा
दौधो ।
t
१२ भगवान साधां ने गोशाले सूं आज्ञा दौधी तथा सर्वानुभूति ने
( भगवती श० १५ )
१३ गुरु नौ आज्ञा आराधै ति ने विनोत कह्यो ।
( उत्तराध्ययन अ० १ गा० २ )
नियन्थाहाराऽधिकार ।
१| साधु प्राशुक हार भोगवै तो ७ कर्म ढौला
पाड़े ।
( ज्ञाता अ० १६ )
चर्चा करने की विनीत को ।
( भगवतो श० १ उ० ६ )
२ ज्ञान दर्शन चारित्र बहवा ने अर्धे साधु आहार
"
करे ।
"
३ साधु मोक्ष ने अर्धे आहार करे ।
( ज्ञाता अ० २ )
( ज्ञाता अ० १८ )
1
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४ साध जयणा तूं आहार करै तो पाप कर्म बंधै ' नहीं।
(दशवकालिक अ० ४ गा०८) ५ साधु ना आहार नौ वृत्ति असावद्य कही।
(दशकालिक अ०५ उ०१ गा०६२) ६ निर्दोष याहार ना लेवगाहार तथा देवणहार दोनों शुद्ध गति में जावे।
(दशवकालिक अ०५ उ०१ गा० १००) ७ छव स्थानके करी साधु आहार करे तो आजा उलंच नहीं।
(ठाणाङ्ग ठा०६)
निग्रन्छ निद्राऽधिकार ।
१ साधु रै यत्नाई करी सोवतां पाप बन्धे नहीं।
(दशवकालिक ३०४ गा०८) २ 'मुत्ते' नाम निद्रावन्त नो है।
(दशकालिक अ०४) ३ कांडक मुतो कांडूक जागतो खप्न देखें।
(भगवती २०१६ उ०६) ४ अभिग्रह धारी साधु तीजी पोरसी में निद्रा स्कै।
(उजराध्ययन १० २६ गा०१८)
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( ३ ) ५ पाणी ने किनारै निद्रादिक कार्य करना कल्यै नहीं।
(वृहत्कल्प उ० १ बोल १६) ६ अन्तर घर में निद्रा लेणी कल्यै नहीं।
.. (वृहत्कल्प उ० ३ बोल २१) ७ साधु ने भाव निद्राई करौ जागतो कह्यो।
(आचाराङ्ग श्रु० १ अ०३ उ०१)
एकाकि साधु-अधिकार
१ ग्रामादिक का घणा निकाल पैसार हुवै विहां घणा आगमना जाण बहुश्रुति ने पिण एकाकि पये न कल्प। .
(व्यवहार उ०६) २ ग्रामादिक तथा सरायादिक ने विषै घणा निकाल
पैसार हुवै तिहां अगडसुया ते निशीथ ना अजाण त्यांने एकाकि पणे न कल्प।
(व्यवहार उ०६) ३ ग्रामादिक ना जुदा २ निकाल हुवै तिहां साध साध्वी ने भेलो रहिवो कल्प।
(वृहत्काप उ० १ बोल ११)
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७४)
४ एकलो रहे ति में आठ दोष कया ।
( आचारांग ध्रु० १ १०५ ॐ० १ )
५. सूत्र अने वय करौ अव्यक्त तेह ने एकाकि पो कला नहीं । तथा सूत्र ने वय करी व्यक्त है तिग ने पिग गुरु नी आज्ञा सूं एकाकि पयो red free आज्ञा बिना कल्प नहीं ।
( अचाराङ्ग श्रु० १ भ० ५ उ० ४ ) ६ आठ गुणसहित ने एकल पड़िमा योग्य को श्रद्धा से सेंठो १ देव डिगायो डिगे नहीं २ सत्यवादी ३ मेधावी ( मर्यादावान ) ४ वहुस्सुये ( नत्रमा पूर्वनौ तीन वत्धुनो जागा ) ५ शक्तिवान ६ कलहकारी नहीं ७ धैर्यवन्त ८ उत्साह वीर्यवन्त । ( ठाणांग ठाणे० ८ ) ७ साधु ने श्रावक विहं ने धर्मना करणहार कह्या वलि साधु ने श्रावक ने 'सुव्वया' कया ।
( एववाई प्रश्न २०-२२ )
८ घना साधा में पिरा विकाले तथा गति में एकला ने दिशा न जायो । ( बृहत्कल्प उ० १ योल ४० ) ८ जे ज्ञानादिक ने अर्थे गुरुवादिक नी सेवा करें तो गच्छ मध्यवर्ती साधु निपुण सखाइयो वांछे ।
( उत्तगध्ययन अ० ३२ )
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१० राग द्वेष ने अभावे एकलो ऊभी रहै पिण भिख्यास्यां ने उल्लङ्घी न जाय। __
(उत्तराध्ययन अ० १ गा० ३३) ११ रागद्दष ने अभाव एकलो कही। . ..
(उत्तराध्ययन अ० १ गा०१०) १२ जे ई रागद्देष ने अभाव ज्ञानादि सहित एकलो विचरस्यू इम विचारी दीक्षा लेवे।
(सूयगडांग श्रु० १ ० ४ उ०१ मा० १) १३ घर छोडौ रागद्दष ने अभाव एकलो विचरै।
(उत्तराध्ययन अ० १५ गा०१६) १४ तीन मनोरथ में चिन्तवै जे किंवार है एकलो
घई दशविधि यति धर्म धारौ विचरस्यूं तेह नो
न्याय । १५ गुरु कह्यो-हे शिष्य ! तोने एकलपणो म होज्यो।
(आचारांग श्रु० १ अ०५ उ०४)
-
-
(८
उच्चार पाहवयाधिकारः । १ वड़ी नौति या लघु नीति परठी ने वस्त्र करी पूछ नहौं तथा पूछता ने अनुमोदै नहौं, तो प्रायश्चित कयो।
(निशीथ उ०४ चोल ३७)
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२ उचार पासवगा परठी काष्टादिके कगै पूछां प्रायश्चित । ।
(निशीथ उ०४ बोल १३८) ३ उच्चार पासवस परठी ने शुचि न लेवै अथवा
तठेई उच्चार ऊपर शुचि लेवै अथवा अति दूर ' जाई शुचि लेवै तो प्रायश्चित आवै।
(निशीथ उ०४ चोल १३६ से १४१) ४ दिवस तथा रात्रि तथा विकाले पोता ना पावे
तथा अनेरा साधु ने पाने उच्चार पासवण परठवी सूर्य रो ताप न पहुंचे तिहां न्हाखै तो दण्ड आवै।
(निशोथ उ० ३ योल ८२) ५ धनी सार्थवाह विजय चोर साथै एकान्ते जाई उच्चार पासवण परठ्यो कयो।
(माता अ०२)
कविताऽधिकार
१ तीर्थयार ना जेतला माधु हुई ते ४ दुविई' करी तेतला पन्ना करै।
(नन्दी पञ्चमान वर्णन)
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। ७७ ) २ मतिज्ञान ना दोय भेद १ श्रुत निश्चित २ अश्रुत निश्चित । तिहां जे सूत्र विना हो ४ बुद्धि करी सूत्र सूं मिलतो अर्थ ग्रहण करे, सूत्र विना हो बुद्धि फैलावै ते अश्रुत निश्चित मतिज्ञान नो भेट कह्यो छै। बली कह्यो पूर्वे दौठो नहौं सुख्यो नहीं ते अर्थ तत्काल ग्रहण करै ते उत्मात नौ बुद्धि अश्रुत निश्चित मतिज्ञान नो भेद कह्यो।
(साख सूत्र नन्दी) ३ जे भारत रामायणादिक मिथ्या दृष्टि ना कौधा ते मिथ्या दृष्टि रे मिथ्यात्व पणे ग्रह्या अने सम्यग्दृष्टि रे सम्यक्त पणे ग्रह्या।
(साख सूत्र मन्दी) ४ च्चार प्रकार ना काव्य कह्या १ गद्यबन्ध २ मद्यबन्ध ३ कथाकरी ४ गायवेकरी।
(ठाणांग ठा०४ उ०४) ५ गाथाई करी बाणो करो, बाणो कथी एहवु कह्यो।
(उत्तराध्ययन १० १३ गा० १२) ६ वाजा रै लारै ताल मेली गायों दण्ड कह्यो।
(निशोथ उ०१७ बोल १४०
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( ७८ ) अपमाफ कहू निर्जराऽधिकार । १ ने श्रावक साधु ने सचित अने अतूझतो देवै, तो अल्प पाप बहु निर्जरा हुवै तेह नो न्याय।
(भगवती श० ८ उ०६) २ साधु ने अप्राशुक अशेषगौक आहार दौधा अल्पायुष वान्ध।
(भगवती श०५३०६) ३ साधु रे अशुद्ध आहार अभक्ष कह्यो।
(भगवती श० १८ उ०१०) ४ श्रावक ने प्राशुक एषणोक ना देवगाहार कह्या ।
(उववार्ड प्रश्न २०) ५ आनन्द श्रावक कह्यो कल्पै मुझ ने श्रमणा निग्रन्थ ने प्राशुक एषणीक अशनादिक देवो ।
(उपासक दशा अ०१) (क) आधा कर्मी अने अतृभातो आहार ए निर्वद्य
छ एहवो मन में धारे तथा प्ररुपै ते बिना आलीयां मरे तो विगधक कन्यो।
(भगवती २० ५ उ० ६) (ख) जे श्रावक प्राशुक एघगीक अशनादिक साधुने दई समाधि उपजावे, तो पाको समाधिपावै ।
(भगवनी ०७ ३०)
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है शद्ध व्यवहार करी ने आधाकर्मी लियो निर्दोष जाणो ने तो पाप न लागे।
(सूयगडांग श्रु०२ उ०५ गा० ८-६) (क) वीतराग जोयर चालै तेहथौ कुक्क टादिक ना
अण्डादिक जौव हमौजे तेह ने पिगा पाप न लागै। पुण्य नी क्रिया लागै शुद्ध उपयोग माटे।
(भगवती श० १८ २०८) (ख) साधु ई. वारी चालतां जीव हणोजै तो
तेह ने पिण पाप न लागै। हणवारो कामी नहीं ते मारी।
(भाचाराङ्ग श्रु० १ ० ४ ० ५) ७ अल्प (नहीं) वर्षा में भगवान विहार कौधो।
(भगवती श० १५) ८ अल्प प्राणी बौज छै जिहां ते स्थानके साधु ने आहार करवो।
(उत्तराध्ययन २०१ गा० ३५) ६ अल्प प्राण बोजादिक होवै तिण स्थान के शुद्ध करी आहार करवो।
(आचाराङ्ग श्रु० २ ० १ उ०१) १. साधु रे अर्थे कियो उपाश्रयो भोगवै तो महा
सावद्य क्रिया लागै। दोय पक्ष रो सेवगाहार कयो
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' ८० )
अने गृहस्थ पोतारे अर्धे कीधो उपाश्रयो साधु भोगावै तो एक शुद्ध पक्ष रो सेवणहार को अने अल्प सावद्य क्रिया कही ।
( आचाराङ्ग ध्रु० २ अ० २ उ०२ )
कपाटाइधिकारः ।
१ किमाड़ सहित स्थानक मन करी ने पिण बांगो
नहीं ।
( उत्तराध्ययन अ० ३५ )
२ घोड़ो उघाद्य पिण किमाड़ घणो उघाड्यो हुवै तेह ने पिण "मिच्छामि दुक्कडं " देवे ।
( आवश्यक अ० ४ )
३ जागां न मिले तो सूना घरने विषे रह्यो साधु किमाड़ जड़े उघाड़े नहीं । जड़े
( सुयगडग ध्रु० १ ० २३० २ गा० १३ ) ४ कण्टक वोदिया ते कांटा नी साखा करो वारणो ढक्यो हुवे तो धगी नी चाज्ञा मांगौ ने पूंजकर द्वार उघाड़यो ।
( आवारा श्रु० २ अ० १३०५ ) ५. एहवी स्थानक माधु ने रहिवो नहीं ने उपाश्रय माहीं लघु नीति तथा वड़ो नीति परठा बो
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जागा न हुवै अने गृहस्थ बारला किमाड़ जड़ता हुवै तिवार रात्रि ने विषं आवाधा पौड़ता किमाड़ खोलना पड़े ते खुला देखि माहे तस्कर अावे बतायां न बतायां, अवगुण उपजता कह्या सर्व दोष में प्रथम दोष किमाड़ खोलने को कयो ‘ति कारण साधु ने किमाड़ खोलनो पड़े एहवे · स्थानके रहिवो नहीं।
. .
(आचाराङ्ग श्रु०२ ० २ उ०२) ६ साध्वी ने उघाड़े बारने रहिवो नहीं किमाड़न .., हुवै तो पोता नौ पछेवड़ी बांधी ने रहिवो, पिण ' उघाड़े बारने रहिवो नहौं कल्पै शौलादि निमते . . किमाड़ जड़वो अने साधु ने उघाड़े बारने रहिवो कल्पै ।... .. . (बृहत्कल्प उ० १ ) . . ( इति सम्पूर्णम्)
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'. ॥ जिन अाज्ञा की ढाल ॥
॥दोहा॥.. श्री जिन धर्म जिन आज्ञा मझे, आजा वारै नहीं जिन धर्म । तिणस्युं पाप कर्म लागै नहौं, वले कटै
आगला कर्म ॥ १ ॥ कई खूढ मिथ्याती इम कहै, जिण आज्ञा बारै जिण धर्म। जिण आज्ञा मांहे कहै पाप छै, ते भुला अज्ञानी भर्म ॥ २ ॥ जिण आज्ञा बारै धर्म कहै, जिण आजा मांहे कहै पाप । ते किण हौं सूत्र में है नहौं, युहिं करै सूढ विलाप ॥ ३ ॥ कहै धर्म तिहां देवां आगन्या, पाप छै तिहां करां निषेध । मिश्र ठिकाणै मौन छ, एहं धर्म नो भेद ॥ ४॥ इसड़ी करै छै परूपणा, ते करै मिथ रो घाम । ते वूडा खोटो मत बांधने, श्रीजिन वचन उथाप ॥ ५ ॥ कई मिथ तो मानै नवि, मानै हिंसा में एकन्त धर्म। ते पण वडै छै वापडा, भारी करै छै कर्म ॥ ६ ॥ जिन धर्म तो जिण अाजा मझे, आजा वारै धर्म नहीं लिगार। तिगामें साख सूत्र गै दे कहूं, ते मुणग्यो विस्तार ॥ ७॥
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२ ॥ ढाल ॥
.
. ( जीव मारै ते धर्म आछो नवि एदेशी) , ... आज्ञा में धर्म है जिनराजे रो, आजा बारै कहै ते खूढ रे। बिबेक विकल सुध बुध बिना, ते बूडे के कर कर रूढ़ रे, श्रौजिन धर्म जिन आगन्या तिहां ॥१॥ ज्ञान दरशण चारित ने तप, एतो मोखरा मारग च्यार रे। यां च्यारां में जिनजी री आगन्यां, यां बिना नहीं धर्म लिगार रे ॥ श्री ॥ २॥ यां च्यारां मांहला एक एक रौ, आज्ञा मांगै जिनेश्वर मास रे । तिण ने देव जिनेश्वर आगन्या, जब ओ मामै मन में हुलास रे ॥ श्री ॥ ३॥ यां च्चारां बिना मांगे कोई आगन्या, तो जिनेश्वर साझे सून रे। तो जिन आगन्या बिना करणी करै, ते करणी छै जाबक जबून रे॥श्री ॥४॥ घौसा भेदां रूकै कर्म आवतां, ‘बारै भेद कटै पन्धिया कर्म रे । त्याने देवै जिनेपूर्वर आगन्या। ओहिज जिण भाष्यो धर्म रे ॥ श्रौ ॥ ५॥ कर्म रूकै तिण करणी में आगन्या, कर्म कटै तिण करणी में जाण रे। यां दोयां करणी बिना नवि आगम्या, ते सगलौ सावध पिकाय रे॥ श्री ॥ ६ ॥ देव अरिहन्त मे गुरू साध छै, केवली भाष्यो ते धर्म रे। और धर्म नहीं जिन आगन्या, तिण
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{ ८४ ) मु लागै छै पाप कर्म रे॥ श्री ॥ ७॥ जिन भाष्या में जिनजी री आगन्या, औरां री भाष्या में और जाग रे। तिणस्यूं जीव सुधगत जावै नहीं, बले पाम लागे छै आण रे ॥ श्री ॥८॥ केवली भाषयो धर्म मंगलौक के, ओहिज उत्तम जाण रे । शरणो पण ल्यो इण धर्म रो, तिणमें श्रोजिन आज्ञा प्रमाण रे ॥ श्री ॥ ६ ॥ ठाम २ सूत्र मांहे देखल्यो, केवलौ भाषो ते धर्म रे। मौन साझे तिहां धर्म को नहीं, मौन साझै तिहां माप कर्म रे॥ श्री ॥ १० ॥ मौन सालगियो धर्म माठो घगो, भेषधास्यां परूप्यो जाण रे। खांच २ बुडै छै बापड़ा, से सूत्र रा लूट अजाण रे ॥ श्री ॥ ११॥ धर्म ने शुक्ल दोन ध्यान में, जिन आज्ञा दीधी बार बार रे । आतं रुद्र ध्यान माठा विहु, याने ध्यावै ते आजा बार रे ॥ श्री ॥ १२ ॥ तेजु पद्म शुक्ल लेश्या भली, त्यांने जिन भागन्या ने निर्जरा धर्म रे। तीन माठी लेश्या में आता नहीं, तिणस्यूं वन्धै छै पाप कर्म रे ॥श्री॥१३॥ च्यार मंगल च्चार उत्तम कद्या, च्यार शर्गा कह्या जिनराय रे । ए सगला छै जिन बागन्या मझे, प्राजा विन आशी वस्तु न काय रे ॥ श्री ॥ १४॥ भला प्रगाम में जिन आगन्या, माठा परिणामा आजा 'वार रे। भला पग्गिामा निर्जरा निपजे, माठा परिणामा पाम
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द्वार रे । श्रौ ॥१५॥ मलां अध्यवसाय में जिन आगन्या; आज्ञा बारै माठा अध्यवसाय रे । भला अध्यवसायां तूं निर्जरा हुदै, माठा अध्यवसायां सूं पाप बन्धाय रे । श्री ॥१६॥ ध्यान लेण्या प्रणाम अध्यवसाय छै, च्यारूं भला में आज्ञा आण रे। च्यारूं माठा में जिन आज्ञा नहीं; यांरा गुणा रौ करजी पिछाण रे. ॥ श्री ॥ १७॥ . सर्व झूल गुण ने उत्तर गुण, देश सूल उत्तर गुण दोय रे । दोयां गुणा में जिननी री आगन्या, आगन्या बारै गुण नवि कोय रे ॥ श्री ॥ १८॥ अर्थ परम अर्थ जिन धर्म छै, उववाई सूयगडायंग मांय रे । तिणमें तो जिनजी रौ आगन्या, शेष अनर्थ में आज्ञा नवि ताय रे ॥ श्री॥ १६ ॥ सर्व ब्रत धर्म साधां तणो, देशवत श्रावक रो धर्म रे। या दोयां धर्म जिनजौ रौ आगन्या, प्राजा बारै तो वधसी कर्म रे ॥ श्री ॥ २० ॥ उजलो धर्म के जिनराज रो, ते तो श्रीजिन आज्ञा सहित रे। मुगत जावा अजोग असुध कह्यो, ते तो जिन आज्ञा स्यं विपरौतरे॥ श्री ॥ २१ ॥ आज्ञा लोप छांदै चाले आम है, ते ज्ञानादिका धन सं खाली थाय रे। प्राचारङ्ग अध्ययन दूसरे, जोवो, छट्ठा उद्देशा मांय रे ॥श्री ॥२२॥ माज्ञा सं रुकै ते धर्म मांहरो, एहवो चिन्तचे साधु मन मांय रे। भाजा विन करवो जिहांहिं रह्यो, रूड़ो
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बोलवो पिण नवि थाय रे ॥ श्री ॥ २३॥ आज्ञा मांहलो ते धर्म माहरो, और सर्व पारको थाय रे। आचारांग छट्ठा अध्ययन में, पहले उद्देश जोय पिछाण रे ॥ श्री ॥ २४ ॥ आगन्या माहे संजम नै तप, आगन्या में दोनं परिणाम । आज्ञा रहित धर्म आछो नवि, जिण कयो पराल समान रे ॥ श्री ॥ २६ ॥ निर्वद्य धर्म चतुर विध संघ छै, ते आज्ञा सहित व अनुसन्तान रे। आचा; रांग चौथा अध्ययन में, तौजे उद्देशे कह्यो भगवान रे ॥ श्री ॥ २७ ॥ तिर्थंकर धर्म कौधो तिको, मोक्ष रो मारग सुध वेश रे। और मोक्ष रो मारग को नहौं, पांचमें आचारंग तीजै उद्देश रे ॥ श्री ॥ २८ ॥ जिगम आना बारलौ करणौ तणो, उद्यम करै अज्ञानी कोय रे। आता मांदली करणी रो बालस करे, गुरु कहै शिष्य तोने दोय म होय रे ॥ श्री ॥२६॥ कुमारग तगी फरणी करै, सुमारग रो आलस होय रे । ए दोन हौं करगी टुरगत तणी, आचारंग पांचमें अध्ययन जोय रे ॥ श्री ॥ ३० ॥ जिण मारग ग अजागा ने, जिण उपदेश नो लाभ न होय रे। आचारंग ग चौथा अध्ययन में; तीजा उद्देशा में जोय रे ॥ ३१ ॥ ज्यां दान मुपान ने दियो, तिणमें श्रीजिन आजा नाण रे । कुमात्र दान में । अागन्या नहीं, तिण री बुद्धिवन्त करज्यो पिकाय रे
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२ ॥ साधं बिना अनेरा सबै ने, दान नहीं दे माठो परे। दोधां भमण करै संसार में; तिणस्यूँ साध वा पञ्चखाण रे ॥ ३३ ॥ सूयगडांग नवमा अध्ययन बौसमी गाथा. जोय रे । बले दोधां भागै ब्रत साध - जिन आगन्या पिण नवि कोय रे ॥ ३४ ॥ पावे पाव दोन ने दियां, बिकल कहै दोया में धर्म रे। म हुसी सुपात्र दान में; कुपात्र ने दियां पाप कर्म रे
३५॥ खेत्र कुखेव श्रौजिनवर कह्यो, चौथे ठाणे जाणा अंग माय रे। मुखेत्र में दियां जिन आगन्या, कुखेत्र में आज्ञा नवि काय रे ॥ ३६ ॥ आहार पाणी ने वले उपधादिक, साधु देवै गृहस्थ ने कोय रे । तिग मे चौमासी दण्ड निशीथ में, पनरमें उदेशे जोय रे ॥ ३७॥ गृहस्थ ने दान दे तिण साधु ने, प्रायश्चित आवै कौधो अधर्म रे। तो तेहिज़ दान गृहस्थ देवे, त्यांने किण विध होसौ धर्म रे ॥ ३८ ॥ असंजम छोड संजमादस्यो, कुशील छोड़ हुवो ब्रह्मचार रे । अकल्प. णीक भकार्य परहरे, कल्प आचार कियो अंगीकार रे ॥ ३६॥ अज्ञान छोडने ज्ञान आदखो, माठी क्रिया छोडी माठी जाण रे। भली क्रिया ने साधु आदरी, जिण आज्ञा स्यूं चतुर सुजाण रे ॥ ४० ॥ मिथ्यात छोड सम्यक्त आदस्यो, अबोध छोड आदयो बोध रे।
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उनमार्ग छोड़ सनमार्ग लियो, तिगस्यूँ होसी आसमा
सुध रे ॥ ४१ ॥ आठ छोड़े ते जिन उपदेश सूँ, पाप कर्म तो वन्ध, जाग रे । जिण याज्ञा स्यूं आठ यादयां, तिण पामै पद निर्वाण रे ।। ४२ ।। ठाम २ सूत्र में देखल्यो, जिगा धर्मं जिग चाज्ञा में जाग रे । ते सूट मिथ्याती जागे नहीं, युहीं बुडे है कर कर ताण दे || ४३ ॥ हूं कहि कहिने कित रो कहूँ, आगन्या वारे नहीं धर्म सूल रे । आगन्या वारे धर्म कहै तेहना, सरधा कण विना जोगो धल रे ॥ ४४ ॥
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॥ सम्पूर्णम् ॥
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