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बोलवो पिण नवि थाय रे ॥ श्री ॥ २३॥ आज्ञा मांहलो ते धर्म माहरो, और सर्व पारको थाय रे। आचारांग छट्ठा अध्ययन में, पहले उद्देश जोय पिछाण रे ॥ श्री ॥ २४ ॥ आगन्या माहे संजम नै तप, आगन्या में दोनं परिणाम । आज्ञा रहित धर्म आछो नवि, जिण कयो पराल समान रे ॥ श्री ॥ २६ ॥ निर्वद्य धर्म चतुर विध संघ छै, ते आज्ञा सहित व अनुसन्तान रे। आचा; रांग चौथा अध्ययन में, तौजे उद्देशे कह्यो भगवान रे ॥ श्री ॥ २७ ॥ तिर्थंकर धर्म कौधो तिको, मोक्ष रो मारग सुध वेश रे। और मोक्ष रो मारग को नहौं, पांचमें आचारंग तीजै उद्देश रे ॥ श्री ॥ २८ ॥ जिगम आना बारलौ करणौ तणो, उद्यम करै अज्ञानी कोय रे। आता मांदली करणी रो बालस करे, गुरु कहै शिष्य तोने दोय म होय रे ॥ श्री ॥२६॥ कुमारग तगी फरणी करै, सुमारग रो आलस होय रे । ए दोन हौं करगी टुरगत तणी, आचारंग पांचमें अध्ययन जोय रे ॥ श्री ॥ ३० ॥ जिण मारग ग अजागा ने, जिण उपदेश नो लाभ न होय रे। आचारंग ग चौथा अध्ययन में; तीजा उद्देशा में जोय रे ॥ ३१ ॥ ज्यां दान मुपान ने दियो, तिणमें श्रीजिन आजा नाण रे । कुमात्र दान में । अागन्या नहीं, तिण री बुद्धिवन्त करज्यो पिकाय रे