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२ ॥ साधं बिना अनेरा सबै ने, दान नहीं दे माठो परे। दोधां भमण करै संसार में; तिणस्यूँ साध वा पञ्चखाण रे ॥ ३३ ॥ सूयगडांग नवमा अध्ययन बौसमी गाथा. जोय रे । बले दोधां भागै ब्रत साध - जिन आगन्या पिण नवि कोय रे ॥ ३४ ॥ पावे पाव दोन ने दियां, बिकल कहै दोया में धर्म रे। म हुसी सुपात्र दान में; कुपात्र ने दियां पाप कर्म रे
३५॥ खेत्र कुखेव श्रौजिनवर कह्यो, चौथे ठाणे जाणा अंग माय रे। मुखेत्र में दियां जिन आगन्या, कुखेत्र में आज्ञा नवि काय रे ॥ ३६ ॥ आहार पाणी ने वले उपधादिक, साधु देवै गृहस्थ ने कोय रे । तिग मे चौमासी दण्ड निशीथ में, पनरमें उदेशे जोय रे ॥ ३७॥ गृहस्थ ने दान दे तिण साधु ने, प्रायश्चित आवै कौधो अधर्म रे। तो तेहिज़ दान गृहस्थ देवे, त्यांने किण विध होसौ धर्म रे ॥ ३८ ॥ असंजम छोड संजमादस्यो, कुशील छोड़ हुवो ब्रह्मचार रे । अकल्प. णीक भकार्य परहरे, कल्प आचार कियो अंगीकार रे ॥ ३६॥ अज्ञान छोडने ज्ञान आदखो, माठी क्रिया छोडी माठी जाण रे। भली क्रिया ने साधु आदरी, जिण आज्ञा स्यूं चतुर सुजाण रे ॥ ४० ॥ मिथ्यात छोड सम्यक्त आदस्यो, अबोध छोड आदयो बोध रे।