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ध्यारा ॥ १॥ शुक्लं ध्यान अमृत रस लौना, संवेग रस करो जिन भौना । प्याला प्रभु उपशम ना पीना ॥ अ० ॥ २॥ जाण्या शब्दादिक मोह बाला, रमणी सुख किम्पाक समकाला। हेतु नरकादिक टुःख पाला ॥ १० ॥३॥ पुगल शिष अरि जाण्या खामी, ध्यान थिर चित्त आत्म धामौ। जोड़ी युग केवल नौ पामी ॥ अ० ॥ ४ ॥ थाप्या प्रभु च्यार तौरथ तायो, माख्यो धर्म जिन शाज्ञा मांयो । आज्ञा बाहिर अधर्म दुःखदायो । अ० ॥ ५ ॥ व्रत धर्म धर्म जिन ाख्याता, अब्रत कही अधर्म दुखदाता। सावछ निरवछ जु जुश्रा करवा खाता- अ॥ ६ ॥ बहु जन तार मुक्ति पाया, उगग्नीसै आसू धुर दिन आया। धर्म जिन रटदे सुख पाया । अ०७॥
श्री शान्ति जिन स्तवन ।
(हूं बलिहारी भीखणजी साधरी एदेशी) शान्ति करन प्रभु शान्तिनाथजी, शिव दायक सुखकन्द की। बलिहारी हो शान्ति जिवन्द कौ ॥ १॥ अमृत वाणी सुधासौ अनुपम, मेटरह मिथ्या मंदकी सव०॥ २॥ काम भोग राग इस कटक फल, विष बेलि मोह धन्दको । ब० ॥३॥ गक्षसणी रमणी वैतरणी । पुतली