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संस्थापक थे ।"३
__इस प्रकार जैनेतर साहित्य से भी यह पुष्टि होती है कि 'ऋषभदेव जैन धर्मके संस्थापक थे ।' अतः जैन धर्म भगवान् महावीर व पार्श्वनाथ से तो अत्यन्त प्राचीन है यह हम निश्चित रूप से कह सकते हैं।
भगवान पार्श्वनाथ एवं भगवान महावीर के समय में जैनधर्म को 'निर्ग्रन्थ धर्म' कहा जाता था । साथ ही इसे श्रमणधर्म भी कहते थे । उस समय एकमात्र जैन धर्म ही श्रमणधर्म न था बल्कि श्रमणधर्म की अन्य शाखाएँ भी भूतकाल में थी और अद्यावधि श्रमण परंपरा की एक शाखा बौद्धधर्म की शाखाएँ जीवित हैं अर्थात् बौद्धधर्म को भी श्रमणधर्म कहा जाता था । किन्तु जैन धर्म या निर्ग्रन्थ धर्म में श्रमणधर्म के सामान्य लक्षणों के होते हुए भी आचार-विचार की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो कि उसे श्रमणधर्म की अन्य शाखाओं से पृथक करती हैं । अब हम देखेगें कि श्रमणधर्म की क्या विशेषताएँ है जो उसे ब्राह्मण धर्म से अलग करती हैं ।
उस समय दो परंपराये प्रचलित थीं-१. ब्राह्मण, २. श्रमण । इन दोनों परंपराओ में ऐसे तो छोटे-बडे अनेक विषयों में अन्तर है किन्तु विशिष्ट अन्तर यह है कि ब्राह्मण-वैदिक परंपरा वैषम्य पर प्रतिष्ठित है तो श्रमण परंपरा साम्य पर अधिष्ठित है।
यह वैषम्य और साम्य मुख्यतया तीन बातों में देखा जाता है:-१. समाजविषयक; २. साध्यविषयक; ३. प्राणीजगत के प्रति दृष्टि विषयक । समाजविषयक वैषम्य का अर्थ है कि समाज रचना में तथा धर्माधिकार में वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व व मुख्यत्व तथा इतर वर्णों का ब्राह्मण की अपेक्षा कनिष्ठत्व व गौणत्व । ब्राह्मण धर्म का वास्तविक साध्य है अभ्युदय, जो कि ऐहिक समृद्धि, राज्य और पुत्र पशु आदि के नानाविध लाभों में तथा इन्द्रपद, स्वर्गीय सुख आदि नानाविध पारलौकिक फलों के लाभों में समाता है । अभ्युदय का साधन मुख्यतया यज्ञधर्म अर्थात् नानाविध यज्ञ है । इस धर्म में पशु-पक्षी आदि की बलि अनिवार्य मानी गई है और कहा गया है कि वेदविहित हिंसा धर्म का ही हेतु है । इसके विधान में बलि किये जाने वाले निरपराध पशु-पक्षी आदि के प्रति स्पष्टतया आत्मसाम्य के अभाव की अर्थात् आत्म-वैषम्य की दृष्टि है । इसके विपरीत उक्त तीनों बातों में श्रमण धर्म का साम्य इस प्रकार है- श्रमण धर्म
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