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अरहंतानं, नमो सव्व सिद्धानं' से प्रारम्भ हुए उक्त लेख में जैन इतिहास की व्यापक जानकारी मिलती है। इसमें लिखा है कि महामेघवाहन खारवेल मगधराज पुष्यमित्र पर चढ़ाई कर ऋषभदेव की मूर्ति वापस लाया था । बैरिस्टर श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने उस लेख का गंभीर अध्ययन करके लिखा है-"अब तक के उपलब्ध इस देश के लेखों में जैन इतिहास की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शिलालेख है । इससे पुराण के लेखों का समर्थन होता है । वह राजवंश के क्रम को ईसा से ४५० वर्ष पूर्व तक बताता है । इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान महावीर के १०० वर्ष के अनन्तर ही उनके द्वारा प्रवर्तित जैन धर्म राजधर्म हो गया था और इसने उड़ीसा में अपना स्थान बना लिया था" ।'
इस प्रकार ऐतिहासिक खोजो, शिलालेखीय प्रमाणों, पुरातात्त्विक साक्ष्यों एवं प्राचीन साहित्य के सत्यानुशीलन से ऋषभदेव के साथ-साथ अब जैन धर्म की प्राचीनता को सभी विद्वान के मन्तव्यों से देखेंगे ।
विद्वानों के अभिमत :
कुछ समय पूर्व जैन धर्म के प्रणेता भगवान महावीर को ही माना जाता था और इसे बौद्ध धर्म के पश्चात्वर्ती माना जाता था । किन्तु आधुनिक विद्वानों ने यह सिद्ध कर दिया कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से प्राचीन है एवं इस के प्रवर्तक भगवान महावीर ही नहीं किन्तु उनसे पूर्ववर्ती पार्श्वनाथ तीर्थंकर थे । विद्वानों की शोध एवं भागवत आदि पुराणों से तो यहां तक सिद्ध हो गया है कि जैन धर्म के प्रवर्तक आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे । इस शोध का श्रेय जर्मन विद्वान स्व. हर्मन याकोबी को है । उनके अनुसार-"इस में कोई सबूत नहीं कि भगवान पार्श्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक थे । जैन परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को जैन धर्म का संस्थापक मानने में एकमत हैं । अतः इस मान्यता में ऐतिहासिक सत्य की संभावना है ।"२
पाश्चात्य विद्वानों ने ही नहीं भारतीय विद्वान सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा कि “इस बात के प्रमाण पाये जाते हैं कि ई. पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा होती थी । इस में कोई संदेह नहीं कि जैन धर्म वर्द्धमान और पार्श्वनाथ से पूर्व भी प्रचलित था । यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीनों तीर्थंकरो के नामों का निर्देश है । भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्म के
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