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प्राचार्य चरितावली
समय तक ठहर नहीं सके । केवल स्थूलभद्र ही तन-मन लगाकर सेवा मे डटे रहे ॥२॥
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॥ लावणी ॥
पूर्व सीख दशपूर्वी विद्या पाई, दर्शनहित चक्षादि श्रार्थिका आई । भगिनी को विद्या का परिचय देने, विद्या का परिचय भगिनी को करवाने, गुहा द्वार हरि रुप विराजे छाने । सती देख गरिवर से प्राय पुकारी || लेकर ||२७||
श्रर्थ :- स्थूलभद्र ने अविचल निष्ठा और लगन से अध्ययन किया । जव दशम पूर्व का अध्ययन समाप्त हुआ, एवं स्थूलभद्र के अभ्यास की सौरभ फैली तो उनके ससार पक्ष की भगिनी यक्षा यादि प्रार्यिकाएँ दर्शन की उत्कण्ठा लिये आई । श्राचार्य से पूछने पर मालूम हुआ कि स्थूलभद्र मुनि एकात में अभ्यास कर रहे है । ग्राज्ञा लेकर वे वहाँ दर्शन को गई । उस समय स्थूलभद्र के मन मे भगिनी साब्वी को अपनी विद्या का परिचय देने का कौतूहल जाग उठा और वे सिह का रूप बनाकर गुहा द्वार पर विराज गये । साध्वी सिह रूप को देख कर चौकी और ग्राकर ग्राचार्य को निवेदन
किया ||२७||
॥ राधे० ॥
भद्रवाहु ने मर्म समझ कर, शिक्षण देना बंद किया ।
प्रति आग्रह और संघ विनय से, सूल मात्र का ज्ञान दिया || ६ ||
कि
अर्थ :- भद्रबाहु ने जब यह मर्म समझा तब उनको आश्चर्य हुआ स्थूलभद्र जैसे मुनि भी इस ज्ञान को नही पचा सके तव श्रौरो का क्या होगा ? उन्होने ग्रागे शिक्षण देना बन्द कर दिया । सघ के प्रति ग्राग्रह और स्थूलभद्र की प्रार्थना पर आगे के पूर्वो का मात्र मूल पाठ सिखाया ||६||
॥ लावणी ॥
विनयशील श्रावक नहि पक्ष बंधाया,
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