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आचार्य चरितावली
सम्प्रदाय का अमगलकारी, अशुभ रूप है। इससे सदा बचते रहना लोकहित मे उपयोगी है ।।२०३।।
लावणी॥ धर्म प्राण तो सप्रदाय काया है, करे धर्म की हानि वही माया है। बिना संभाले मैल वस्त्र पर श्रावे, सम्प्रदाय में भी रागादिक छावे । वाद हटाये सम्प्रदाय सुखकारी ॥ लेकर० ॥२०४॥
समन्वय
अर्थः--धर्म और सम्प्रदाय का ऐसा सम्बन्ध है जैसा जीव और काया का । धर्म को धारण करने के लिये सम्प्रदाय रूप शरीर की आवश्यकता होती है । धर्म की हानि करने वाला सप्रदाय, सप्रदाय नही, अपितु वह तो घातक होने के कारण नाया है। विना संभाले जैसे वस्त्र पर मैल जम जाता है, जैसे ही संप्रदाय मे भी परिमार्जन-चिन्तन नही होने से रागपादि मैल का वढ जाना सभव है । पर मैला होने से वस्त्र फैका नही जाता, अपितु साफ किया जाता है। जैसे ही विकारो के कारण सप्रदाय का त्याग करने की अपेक्षा विकारो का निराकरण कर सप्रदाय का शोधन करना ही थेयस्कर है ।।२०४।।
॥ लागरणी ।। पर समह की अच्छी भी बद माने, अपने दूषण को भी गुरण न माने । दृष्टि राग को छोड़ बनो गुरगरागी, उन्नत कर जीवन हो जा सोभागी।
साधन से लो साध्य बनो अविकारी । लेकर० ॥२०॥ अर्थः-सम्प्रदाय की दृष्टि यह होती है कि अपने अतिरिक्त किसी अन्य समुदाय मे अच्छाई हो ही नहीं सकती, उसकी दृष्टि मे अच्छी भी