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आचार्य चरितावली
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लोकागच्छ के नाम से पुकारा जाने लगा। जीवाजी ऋषि के कई शिष्य हुए। उनमे से सवत् १६१३ मे वीरसिहजी ऋपि को वडोदा मे पदवी दी गई। और दूसरी ओर बालापुर मे कु वरजी ऋपि को पूज्य पद प्रदान किया गया । तब से एक मोटी पक्ष के और दूसरे न्हानो पक्ष के कहलाने लगे। पहले को केशवजी का पक्ष और दूसरे को कुंवरजी का पक्ष भी कहते है । दोनो की परम्परा निम्न प्रकार है .--
(१) भाणांजी ऋपि ने सर्वप्रथम स० १५३१ में यह बीडा उठाया। आप सिरोही क्षेत्र के अरहटवाडा ग्राम के निवासी थे। आपकी जाति पोरवाल व कुल ऋद्धिमान् था। आपने अहमदाबाद मे दीक्षा ग्रहण की। स्व० मणिलालजी महाराज के लेखानुसार आपके साथ ४५ व्यक्तियोने दीक्षा ग्रहण की थी।
(२) भाषां ऋषिजी के पट्टधर भद्दा ऋषि हुए । आप सिरोही के साथरिया गोत्री प्रोसवाल थे। संघवी तोला आपके भाई थे। प्राचीन पत्र के लेखानुसार आपने विपुल ऋद्धि को छोड कर ४५ व्यक्तियो के साथ दीक्षा ग्रहण की जिनमे आपके कुटुम्ब के भी चार व्यक्ति सम्मिलित थे।
(३) भद्दा ऋपिजी के पास नूना ऋपि दीक्षित हुए। आप भी जाति से पोसवाल थे।
(४) ऋषि नूना के पास भीमा ऋषि दीक्षित हुए। आप पाली मारवाड के निवासी लोढा गोत्र के प्रोसवाल थे। लाग्यो की सम्पदा छोड कर आप दीक्षित हो गये।
(५) ऋपि भीमा के पट्टधर ऋपि जगमाल हुए। आप उत्तराध (थराद) क्षेत्र के सधर ग्राम के निवासी मुराणा प्रोसवाल थे। मणलाल जी महाराज ने आपको नानपुरा निवासी बतलाया है और इनका दीक्षाकाल १५५० लिखा है।
(६) ऋपि जगमाल के पश्चात् ऋपि सखा हुए । स्व० मणिलाल जी महाराज के लेखानुसार आपकी जाति प्रोसवाल थी और आप वादशाह के वजीर थे । ऋपि जगमाल का उपदेश सुनकर जब आप दीक्षित होने को उद्यत हुए, उस समय बादशाह ने उनसे सवाल किया--"सखा तुम साधु क्यो वनते हो?"